शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

हमारे अन्दर का रावण

हमारे अन्दर की बुराई का रावण
वषों से हम हर साल कागज से बने रावण के पुतले को जलातें हैं
पर अपने भीतर के रावण को रत्ती भर भी नहीं मार पातें हैं
आज दशहरे के दिन अचानक ही कभी सुनी हुई ये पंक्तिया याद हो आयी स्मरण नहीं होता कि कहाँ सुनी थी किन्तु लगता है कि ये पंक्तिया सदा ही ताजी रहेंगी ये तत्कालीन परिस्थितियों में जीतनी सही थी तात्कालिक परिस्थितियों में भी उतनी ही सही हैं कहने वाले ने कितनी सच्ची बात कितने साधारण एवं प्रभावशाली तरीके से कह डाली है .कितना सच है कि हम अपने भीतर के रावण को मारना तो दूर उसे दुत्कार भी नहीं पातें है .अनायास ही एक सज्जन का चेहरा आँखों में घूम जाता है जो यूँ तो रात दिन अपना समय पूजा पाठ में बिताते थे देखने वाले को लगता था कि कितना सज्जन आदमी है किन्तु मेरा दावा है कि यदि कभी किसी ने उसे अपने घर में अपनी पत्नी या बहुओं से बेटों से बात करते सुना होगा तो उसकी राय इसके ठीक विपरीत होती क्योंकि जब भी मैंने उन्हें बात करते हुए सुना तो हमेशा वे गली प्रधान भाषा में ही बात करते पाए गए .अब प्रश्न तो यह है कि उन पुजारी महोदय कि पूजा किस काम की साबित हुई? क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि उन महाशय के अन्दर का रावण हमेशा ही सर उठाये खड़ा रहता है ? हो सकता है इस प्रकार का वाकया हम में से बहुतों के साथ घटित हुआ हो पर हम उस पर ध्यान नहीं देते क्या बुराइयों से इस प्रकार मुख मोड़ लेना भी इस बात का परिचायक नहीं है कि हमारे भीतर का रावन किसी किसी रूप में जिन्दा है?एक छोटी सी लघु कथा मैंने कही पढ़ी थी याद नहीं आता कहाँ कि एक ट्रेन में बहुत ज्यादा भीड़ थी लोग उसमे सफ़र कर रहे थे गाड़ी के दरवाजों से लोग लटके हुए थे अनायास ही एक आदमी का हाँथ दरवाजे के पास लगे डंडे से छुट गया और वह रेल लाइन के किनारे लगे हाई वोल्टाजे खम्भे से टकरा गया जिससे उसका सर फट गया एवं खून का फव्वारा फुट पड़ा खून छिटककर कुछ लोगो के कपड़ो पर लग गया इस घटना में किसी माँ के लाल उस बेटे कि जान चली गयी लोग हादसे से हतप्रभ थे हर कोई अफ़सोस कर रहा था कि बेचारे कि जान चली गयी किन्तु उसी गाड़ी में बैठे हुए एक सज्जन को यह बड़ा ख़राब लगा और उन्होंने नाक भौं सिकोड़ते हुए कहा साले ने पुरे कपडे ख़राब कर दिए .क्या कहा जा सकता है क्या कहा जा सकता है इस मानसिकता को ? हमारे क्षेत्र में एक कहावत कही जाती है कि ^^ बोकरा के जिव चल दिस अउ खवैया ला लवना ^^ अर्थात बकरा तो बिचारा अपनी जन से चला गया और खाने वाले को मजा नहीं आया. इसे शायद दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि हमारी संवेदनाए सूखती जा रही है अब पडोसी या किसी परिचित के दुःख से दुखी होने कि हमारी आदत लगभग ख़त्म हो गयी है पहले यदि मोहल्ले में किसी के यहाँ बेटी कि शादी होती थी तो बिदाई के समय बेटी के माँ बाप के साथ ही मोहल्ले की यदि कोई महिला अपने घर के सामने खड़ी होकर उस दृश्य को देख लेती थी तो विवाह के घर में जाये बिना ही अपने घर में खड़े खड़े ही उस पडोसी महिला के भी आंसू निकल आते थे आज हमारी वह संवेदनाये कहाँ विलुप्त होती जा रही है? क्या यह हमारे भीतर के रावन के लगातार ताकतवर होते जाने का प्रमाण नहीं है?.मुझे नाना पाटकर कि फिल्म प्रतिघात का एक सीन याद जाता है जिसमे डिम्पल कपाडिया घर से निकल कर जाती रहती है तब कुछ मनचले लड़के उसे छेड़ते है किन्तु सब कुछ देखकर भी कोई प्रतिकार नहीं करता किन्तु नाना पाटकर को यह सहन नहीं होता और वह उन मनचले लड़कों से भीड़ जाते है . हम अपने आसपास इस प्रकार कि घटनाये रोज देख रहें हैं किन्तु क्या उसका प्रतिकार कर पा रहें हैं ? शायद नहीं गत दिनों मेरे सामने ही जब कुछ बदमास किस्म के लड़कों ने स्ट्रीट लाइट के बल्ब को फोड़ रहे थे तो मैंने उन्हें मना किया किन्तु मेरे बड़े भाई सामान मोहल्ले के एक सज्जन ने मुझे ऐसा करने से मना किया एवं कहा कि क्या फायदा इन लोगों के मुंह लगकर क्यों अपनी इज्जत गवाते हो ? इन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.यह घटना उदहारण है कि किस प्रकार हम अपने भीतर बैठे दर रूपी रावण से घबरा रहें हैं . ऐसे अनेको उदाहरंनो पर चर्चा की जा सकती है किन्तु वह सार्थक तभी होगी जब हम उस पर मनन करके उस पर कुछ अमल भी करें वरना इस विजयादशमी को भी हमारे भीतर का रावण उतनी ही तीव्रता से उतने ही साहस से अट्टहास कर हमारा उपहास उड़ाता ही रहेगा और हम फिर अगली विजयादशमी की प्रतीक्षा करते रहेंगे .
^^आप सभी को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाये इस विश्वाश के साथ की हमारे भीतर के रावण का नाश हो ^^

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

सोच का फर्क सोच कर देखें

गत दिनों एक मित्र से एक मेल मिला जिसमें एक बुजुर्ग के बारे में बहुत सी अच्छी बातें लिखी हुई थी साथ ही यह भी बताया गया था कि आज कि स्थिति में किस प्रकार बुजुर्गों कि अहमियत को लगातार नाकारा जा रहा है उस मित्र ने मुझसे यह भी निवेदन किया था कि यह मेल मैं और किसी को न भेजूं ताकि बुजुर्गो से सरोकार रखने वाले लोगों को निराशा न हो एवं कुछ परिस्थितियों में बुजुर्गियत कि देहलीज में पैर रख रहे लोग स्वयं को अपमानित न महसूस करें हालाकि मैं इस बात को जनता हूँ कि मेरे उस मित्र को उसके अपने बच्चों से वह सम्मान नहीं मिल पा रहा है जो उसे मिलना चाहिए मेरे उस मित्र ने पुरे जीवन अपने बच्चों को लायक बनाने में कोई कसार नहीं रखी एवं इसके लिए उसने सच्चाई से व्यापर करते हुए जीवन जिया एवं बुजुर्गियत कि दहलीज पर आते आते उसने अपना व्यापर इस लायक बना डाला कि पुत्रों को जमा जमाया व्यापर सौपा एवं यह उम्मीद की कि उसके बच्चे भी उसी कि तरह अपना व्यापर पूरी लगन एवं निष्ठा से करते हुए समाज में अपनी एक अलग जगह बनायेंगे किन्तु ऐसा हुआ नहीं जल्दी पैसा बनाने के फेर में बच्चों ने अनैतिकता की राह पकड़ कर आगे बढ़ने की ठानी एवं बढे भी किन्तु यह बात बुजुर्गवार को गंवारा नहीं हुई मन उन्हें अन्दर से कचोटता था लेकिन वे कर कुछ भी नहीं पा रहे थे वे मात्र अपने आप में घुट कर रह जा रहे थे, परिणाम बहुत ही स्पष्ट था उनका शेष जीवन यही सोच सोच कर बीतता रहा की क्या उन्होंने सही किया या आज जो बच्चे कर रहे हैं वह सही है ? मेरी नजरों में यह आज की पीढ़ी एवं पुरानी पीढ़ी की सोच का अंतर है आज की पीढ़ी में जहा कुछ हद तक अर्थ प्रधानता का सिधांत मुख्य होता जा रहा है वंही पुरानी पीढ़ी सिधान्तो एवं सुचिता पर अधिक ध्यान देती नजर आती है और यही कारण है कि विचारों में मतभेद मनों में भेद कि शक्ल लेता जा रहा है ? क्या हम में से कोई भी इस पर पूरा ध्यान दे रहा है एवं हम अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से निर्वहन कर रहें हैं आइये इस पर विचार तो प्रारंभ करें.शायद हमारी सोच पर भी लगी हुई धुंध कुछ हद तक हटे.