सोमवार, 27 दिसंबर 2010

नया साल नयी संभावनाएं


नयी दिशाएं नयी संभावनाएं ---- सवारे सज़ाएँ
एक बार फिर से नया वर्ष आ गया हम सब ही इस बात की तैयारी में लगे हैं कि नए वर्ष का स्वागत करें होगा भी ऐसा ही धूम धाम से नए साल का आगमन होने जा रहा है फिर से जागेंगी नयी उम्मीदें फिर से देखे जायेंगे नए सपने इस विश्वास के साथ कि वे पूरे होंगे कोई मसीहा आयेगा जो हमारी उम्मीदों पर पानी फिर जाने से रोकने की कोशिश करेगा.और हमें विश्वास रखना ही होगा की ऐसा होगा ही जैसा कि कहा भी गया है कि **आशा से आकाश टीका है ** हमें अपनी आशाओं को जगाकर बनाकर तो रखना ही होगा अन्यथा हममें और पत्थर की मूरत में क्या अंतर रह जायेगा किसी महापुरुष ने कहा भी है की यदि हममें मतभेद नहीं होंगे तो हमारे मध्य चर्चा करने को बच ही क्या जायेगा. वैसे कभी कादम्बनी पत्रिका में पढ़ा एक वाक्य चिंतन का विषय हो सकता है कि कितना सुखद और निरापद है मूर्तियों की तरह पत्थरों में तराश कर जिया जाना ताकि यदि हम बिकें भी तो करोड़ों में भले ही जीते जी हमारी कीमत कौड़ियों में न आकी जा सके. सच ही तो है आम आदमी की कीमत पहचानी भी जा सकेगी यह विवाद का ही विषय है. नए साल के अवसर पर मुझे मेरे एक मित्र द्वारा भेजा गया बधाई कार्ड याद हो आया शायद यह मेरी बेवकूफी ही थी की मैंने उसे संभल कर नहीं रखा उसके शब्द निम्न थे
नया वर्ष
नई रौशनी
नई आशाएं
नई दिशाएं
नई संभावनाएँ
आइये हम सब मिलकर इन्हें
सवारें सज़ाएँ शुभ कामनाएं
सच ही तो है कि हर नया साल हमारे लिए प्रगति कि अशेष संभावनाएं लेकर आता है यह अलग बात है कि हममें से कुछ ही लोग उन संभावनाओं को पहचान पाते हैं शेष नहीं.शायद शेष हम अंधेरे में ही भटके रह जाते है अपनी अंदर की क्षमताओं को पहचान नहीं पाते. मुझे मेरे शिक्षक कवि श्री आर एस केसरी की पंक्तियाँ याद हो आती है कि
हर आदमी निगल गया है एक सूरज को
अपने सूरज को उगल दो उजाला हो जायेगा
और तब आदमी आदमी को पहचान जायेगा **
प्रश्न फिर भी यक्ष की ही तरह खड़ा है कि क्या हम यह प्रयास भी करेंगे कि हम अपने आप को पहचान सकें? शायद नहीं.
इस साल यदि हम अपने आप में कम से कम सकारात्मक सोच का ही विस्तार कर पायें तो ही मेरी नज़रों में यह एक उपलब्धि होगी (कम से कम मेरे लिए तो होगी ही क्योंकि समाज के कुछ नाम चीन लोगों की करतूतों को देखकर मेरी सोच लगातार ही नकारात्मक होती जा रही है ऐसा मुझे लगता है )
गुज़रे साल में क्या खोया क्या पाया का विश्लेषण हमारी उपलब्धि हो सकती है बशर्ते कि यह निष्पक्ष भाव से हो.और हममें आत्मविश्लेषण करने का साहस हो.
हर साल अनायास ही कुछ न कुछ ऐसा तो घाट ही जाता है जिसे न चाहने पर भी हम भुला नहीं सकते न चाहने पर भी अकेले बैठे बैठे हमें वे घटनाएँ याद हो आती है कविवर मैथलीशरण गुप्त की पक्तियां याद हो आती है कि
** कोई पास नहीं रहने पर भी जन मन मौन नहीं रहता
आप आप की कहता है वह आप आप की सुनता **
अकेले बैठे बैठे मन की भावनाओं ने कुछ पंक्तियों में आकर ले लिया सादर प्रस्तुत है
आ गया फिर नया साल
लेकर असीम संभावनाएं
कास कि जुड़कर हम अपने स्वर्णिम अतीत से
भविष्य के फिर से सपने सज़ाएँ
रखे खुद को दूर घपलों घोटालों से
( घपले आम आदमी तो कर नहीं सकता किन्तु कम से कम
नामचीन लोगों के गप्ले सुनने को तो न मिलें क्योंकि उनका होना
तो अब हमारी नियति सी बनती नजर आ रही है )
सच करें उन सपनों को जो आँखों में हैं सालों से
उम्मीद की किरण सदा जलती जगमगाती रहे
मन में सदा ही सभी के नव प्रकाश फैलाती रहे
जीवन सदा ही खुशियों से सभी का भरा रहे
न भूखा नंगा रहे कोई न कोई किसी के ज़ुल्म सहे
अवगुण न दिखे किसी के सद्गुणों की सभी में खान दिखे
किसी की भावनाएं न हो आहत सभी का बना स्वाभिमान रहे
कोशिश हो जीवन सिर्फ जीने के लिए न जीया जा ये
किसी से बैर भाव न हो सभी से मित्रता बढ़ाएं
अपनी क्षमता का करें विकास सभी
प्रगति की नयी रहें बनायें
आइये मिलकर फिर सभी
नया साल मनाएं
ईश्वर अल्लाह गुरु पीर पैगम्बर
जो भी नाम दे उसे
उस परम सत्ता का आशीष पायें
शुभकामनाएं ,शुभकामनाएं, शुभकामनायें
( एक निवेदन इस नादान को उपदेशक न समझें यह मात्र मेरे मन की भावनाएं है जिसे मैंने आप जैसे लोगों के साथ बाँटने का प्रयास किया है )

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

क्या चिठ्ठियाँ फिर आएँगी?


क्या चिठ्ठियाँ फिर आएँगी ?


फिल्म
नाम का एक गीत ^^ चिठ्ठी आई है वतन से ** सुनते सुनते अनायास ही मन कुछ पुरानी यादों में खो गया.अनायास ही याद हो आये वे दिन जब अपनों का सन्देश उनकी कुशल क्षेम जानने के लिए इन्तेजार रहता था उनकी चिठ्ठी आने का. रोज ही दोपहर लगभग ११/ १२ बजे इन्तेजार रहता था डाकिये के आने का और यह इन्तेजार और भी गहरा हो जाता था जब कोई समाचार विशेष पाने के लिए डाकिये का इन्तेजार होता था और वह गाड़ी जिसके माध्यम से डाक आया करती थी लेट हो जाती थी.क्योंकि तब डाक के आने का माध्यम मात्र रेलगाड़ियाँ एवं सरकारी बसें ही हुआ करती थी.तब लगभग हर बड़े व्यापारी के यहाँ एक आदमी कि ड्यूटी लगा करती थी कि वह इस बात का ध्यान रखे कि डाक लेकर आने वाली गाड़ी या बस आ गई या नहीं और यदि आ गई हो तो डाकखाने में जाकर देखे कि डाक कि छंटाई हो गई या नहीं इन लोगों कि यह ड्यूटी रहती थी कि डाक कि छंटाई होते ही उस व्यक्ति या फर्म कि डाक डाकिये से लेकर तत्काल सम्बंधित व्यक्ति तक पहुंचाए जिससे उन पत्रों पर तुरंत कार्यवाही हो सके. उन दिनों में डाकिये का कितना महत्व हुआ करता था इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि पढाई में छात्रों से डाकिये पर निबंध लिखवाए जाते थे या फिर परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाते थे कि हमारे जीवन में डाकिये का क्या महत्व है?
मुझे याद आता है उन दिनों डाक खाने विशेष कर छोटे डाक खानों के कस्बों जैसे मेरा अकलतरा में लोग पोस्ट कार्ड या फिर अंतर्देशी पत्र डाक खाने से खरीद कर घर लाकर रख लेते थे कि यदि डाक खाना बंद हो जाने के बाद पत्र लिखना पड़े तो पछतावा न हो अक्सर ही दोस्तों को या ऐसे रिश्तेदारों को जिनसे सुख दुःख कि बाटें की जा सकती थी रत को आराम से पत्र लिखे जाते थे.उन दिनों में पढाई में लगभग हर कक्षा में पत्र लिखने सम्बन्धी पाठ हुआ करते थे लगभग हर परीक्षा में प्रश्नों के माध्यम से यह जाना जाता था कि कौन छात्र पत्र लिखने में कितना एक्सपर्ट है? विभिन्न विभागों को आवेदन देने या शिकायत करने को पत्र लिखने कि परम्परा थी. हर जगह डाक के निकलने का नियत समय हुआ करता था. किसी दुकान या माकन कि पह्चान हुआ करती थी कि उसके घर या दुकान के सामने पोस्ट ऑफिस का लाल डिब्बा लगा हुआ है.उन दिनों लेट फी पेमेंट करके डाक निकल जाने के बाद भी डाक भिजवाने के नियम थे .उन दिनों दीपावली या फिर अन्य त्यौहारों पर बधाई पत्र ढेरों में लोगों के पास आते थे इन पत्रों को सही समय पर पहुँचाने के उद्देश्य से अलग व्यवस्थाएं कि जाती थी.
मुझे याद है मेरे एक शिक्षक श्री नागानंद मुक्तिकंठ कहा करते थे कि यदि सच में कुछ लिखना सीखना चाहते हो तो कम से कम रोज किसी न किसी के नाम पर एक पत्र अवश्य लिखो फिर उसे पोस्ट करो या न करो और यदि नहीं करते हो तो उसे बार बार पढो इससे तुम्हे अपनी गलतियों का पता लग जावेगा एवं लिखने का मन भी बना रहेगा इस युक्ति को मैंने कुछ समय तक अपनाया भी.
खैर समय बदला एवं चिठ्ठियों कि जगह तार ने बाद में टेलीप्रिंटर ने एवं कालांतर में फैक्स आदि ने ले ली और आज उसकी जगह सर्वसुलभ मोबाइल ने ले ली है.
इस वर्ष दीपावली पर बमुश्किल चार पांच बधाई पत्र ही आये होंगे शेष तो मात्र मोबाइल के माध्यम से फ़ोन या फिर एस ऍम एस ही आये तब मन में उन दिनों कि याद के साथ ही एक पीड़ा भी उभरी कि क्या हमारी आने वाली पीढ़ी के लोग हमारे बच्चे चिठ्ठियाँ लिख भी पाएंगे? यह विचारणीय विषय हो सकता है अभी तो हम उस पीढ़ी के लोग त्यौहारों पर आने वाले बधाई पत्रों को याद करके ही आल्हादित हो सकते हैं एवं यदि हमरे पास हो तो उन पुराने पत्रों को निहार कर पुरानी यादों में खो ही सकतें है इस विश्वाश के साथ कि शायद लिखने कि परंपरा बनी रहेगी