शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

स्वागत नव वर्ष तेरा
फिर आया
नया वर्ष धोने को कलुष पुराना
फिर आया
नया वर्ष देने को एक नया जमाना
हर तरफ
नयी आशाओं का हो संचार
हर तरफ
छाये नयी बहार
हर जगह हो खुशियों की बौछार
फिर से एक बार
जीवंत हम सभी को यह नववर्ष कर जाये
फिर नए सपने नयी रह दिखाए
आइये मिलकर तलाशें
नयी दिशाएं नयी संभावनाएं
वर्ष २०१२ के आगमन की
हार्दिक शुभकामनयें
ईश्वर खंदेलिया एवं परिवार

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

नव वर्ष तुझसे आने के पहले एक निवेदन
आओ नव वर्ष रौशनी दिखा जाओ
वर्षों पूर्व नए साल के अवसर पर आये एक बधाई पत्र की कुछ लाइनें आज फिर याद हो आयी वे थी
नया वर्ष

नई रौशनी

नई आशाएं नई दिशाएं नई संभावनाएं

आइये मिलकर इन्हें सवारें सजाएँ

इन लाइनों पर ध्यान अचानक ही चला गया सोचता हूँ की इन पंक्तियों के रचियेता ने क्या कभी ये सोचा होगा कि एक समय ऐसा भी आएगा जब न तो नई रोशनी ही बचेगी न नई दिशाएं दिखाई देंगी हर तरफ नई संभावनाओं की बातें तो होंगी किन्तु उन संभावनाओ के फलीभूत होने की आशा लगभग नगण्य ही होगी तब शायद उन्होंने सोचा ही नहीं होगा की हमारी आने वाली पीढ़ी को यह दौर भी देखना पड़ेगा जिसे वह आज देख रही है। हर वर्ष की ही तरह नया वर्ष आने को है दरवाजे पर दस्तक दे ही तो रहा है बस उसे भी इंतजार है तो सिर्फ घडी की सुइयों के मिलाने का कि कब ३१ तारीख को रात दोनों सुइयां एकाकार हो जाये और मिलकर उसके आने की घोषणा कर दें होगा भी यही किन्तु एक यक्ष प्रश्न मेरे अन्तश को बार बार सालता है कि क्या आज की स्थिति में भी हम इस लायक है कि नए साल का पुरे जोश से स्वागत कर सकें पता नहीं यह नया वर्ष भी हम सब के जीवन में जाने से पहले कितने अनुत्तरित प्रश्न छोड़ जाये जिनका जवाब हम कभी नहीं खोज सकें।सोचता हूँ कि सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है कि क्या हमारी आनेवाली पीढ़ी को सचमुच हम कुछ देकर जा पाएंगे कोई ऐसी चीज जिस पर वह गर्व कर सके शायद नहीं ही मेरे एक मित्र का कहना है कि चाहे जो भी हो समय की सुइयां तो नहीं ही रुकेंगी हाँ यह अलग बात है कि अच्छे समय के इन्तेजार में हममें से कुछ की धडकनें रुक जाएँ.मेरे अग्रज भाई राहुल सिंह जी akaltara.blogspot.comहमेशा ही कहा करतें है कि आशा कभी नहीं छोडनी चाहिए सच भी तो है कि जिस दिन आशाओं का धागा टुटा उस दिन हम रह ही कहाँ जायेंगे किन्तु मन है कि मानता ही नहीं लाख न सोचने पर भी आज की हमारी परिस्थिति हमें वर्तमान दशाओं एवं दिशाओं पर सोचने को तो मजबूर कर ही देती है परम श्रधेय बाल कवि बैरागी जी से गत वर्ष प्राप्त सुभकामना सन्देश को यंहा उल्लेखित करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जो निम्न है

आइये इस नए साल पर कम से कम यह तो आशा करें कि नया साल हमें इतनी तो मोहलत दे कि जीविका के पर भी हम कुछ तो और भी सोच सकें अपने समाज के लिए अपने देश के लिए अपने परिवेश के लिए और ऐसा होगा भी इन्ही आशाओं केसाथ

ऐ नए वर्ष स्वागत है तेरा

बिखरा जा फिर से नया सवेरा

भर दे हम सब में एक नया उत्साह

अपारताकि तेरा स्वागत करने को रहें

हम हर बार कुमकुम रोली लेकर तैयार

कुछ अपने लिए कुछ परिवेश के लिए

कुछ देश के लिए सोचें आँखों में

उन्नती और प्रगती के सपने
एक बार फिर

सजाएँनयी उमीदों को फिर सहेजे

तलाशें नयी संभावनाएं

नववर्ष की शुभकामनाये ही शुभकामनायें


मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

हे प्रभु मेरी कामना बनी रहे

वो जिसे समझा गया था रहनुमा
क्या निकला पता नहीं
हाँ इतना जनता हूँ कि
मेरे सारे सपने टूट गए
बिखर कर राह गयी
सारी की सारी उम्मीदें
सोचता हूँ क्या गलती थी मेरी
सिवाय इसके कि मैंने विश्वाश
किया था रिश्तों पर
नभाना चाहा था अपनी
परंपरा को ,
किन्तु खंडित हो गया मेरा
विश्वाश चढ़ गया सूली पर
आजके भौतिकतावादी जीवन की
किन्तु सुबह जब देखा सूरज को तो
लगा नहीं अभी भी नहीं टूटी है
रिश्तों की डोर
क्योंकि आज भी सूरज लेकर
आया है एक नई रोशनी
एक नया विश्वाश
और एक नयी आश कि
जब तक दुनिया है मेरे वतन में
रिश्तों की डोर टूट नहीं सकती
कभी भी कंही भी

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

मेरे मन की बात

फिर आया दशहरा हर साल की तरह
फिर जलएंगे हम कागज के रावण
फिर से एक बार देंगे हम अपनों को
विजयादशमी की बधाई
किन्तु क्या हम सोचेंगे कभी कि
क्या हमने हमारे अन्दर विराजमान
रावण की प्रतिमा को भी है
क्या आग लगाई
कल हमारे भीतर का रावण
फिर करेगा अट्टहास
हमारी सहनशीलता का फिर
उडाएगा उपहास
काश कि हम एक बार ही सही
सोच ही पाते
कि हम अपने अन्दर के रावण
को आखिर क्यां नहीं जलाते
आइये हम अपने अन्दर के रावण
को कुछ ही अंशो में सही
आग लगायें
फिर चलिए हर्षित मन से दशहरा मनाएं
विजयदशमी की
आप सभी को
कोटिशः बधाई

शनिवार, 10 सितंबर 2011

हे गणेश

इतना वरदान ही हमें देना हे विघ्नहर्ता
एक बार फिर गणेसोत्सव आया और अब जाने को है गणेसोत्सव के साथ मेरे मन में मेरे नगर की बहुत सी यादें जुडी है नगर में एक दो जगह ही गणेश स्थापना हुआ करती थी और पुरे दस दिन नगर में उत्सव का माहौल रहा करता था उस समय हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के हिसाब से इस हेतु चंदा दिया करता था कालांतर में कई जगहों पर गणेश स्थापना की जाने लगी और धीरे धीरे नगर में उत्सव का वह माहौल समाप्त हो गया गणेश स्थापना लगभग रश्म अदायगी होने लगी.
इस साल कल ही जब एक जगह मै गणेश पूजन के समय पहुँच गया तब पूजन के बाद एक बुजुर्ग ने चर्चा में एक ऐसा सवाल उठा दिया कि वहां उपस्थित हममें से कुछ लोग उस बात पर चिंतन के लिए मजबूर हो गए.
हुआ यूँ कि उन बुजुर्ग का कहना था कि वे अपने बेटे को घर लेजाने आए हैं जो यहाँ पूजा में लगा हुआ है एवं घर पर उसकी माता की तबियत ठीक नहीं है उसे हॉस्पिटल लेकर जाना है किन्तु वह जा नहीं रहा है उस बुजुर्ग ने कहा कि बेटा मेरा बेटा जिस गणेश की पूजा में मस्त है उशी विघ्नविनाशक गणेश ने अपने माता पिता की परिक्रमा को संसार की परिक्रमा मन कर पूरा किया था और प्रथम पूज्य हुए थे किन्तु उसकी पूजा में लगे मेरे बेटे को अपने माँ बाप का दर्द ही दिखाई नहीं देता काश कि वह भगवान गणेश से इतनी ही शिक्षा पा सकता.
इस बात ने कम से कम मुझे तो अन्दर तक झकझोर दिया और यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि विघ्नहर्ता गणेश अपने उस भक्त को काश इतनी बुद्धि देते कि वह उनकी एक शिक्षा को तो ग्रहण कर पता.
दुखद है कि आज हमारे समाज में बुजुर्गों को वह अपेक्षित सम्मान नहीं मिल पा रहा है जो उन्हें मिलना चाहिए.
आइये उस परम कृपानिधान मंगलकर्ता से इतनी ही प्रार्थना करें कि वह हमें यही वरदान दे कि हमारे समाज में बुजुर्गो से माता पिता से ऊँचा कोई न मन जाए
जय जय श्री गणेश

सोमवार, 18 जुलाई 2011

माँ नहीं बदनाम करना चाहता तुन्हारे
दूधों नहाओं पूतो फलों के आशीर्वाद को
शायद इसीलिए जिए जा रहा हूँ
वरना आदमी को मरते हुए आदमी को
नहीं देखना चाहता या यूँ कहूँ कि नहीं देख सकता
नहीं देखना चाहता किसी माँ के पूतों को कपूत बनते
जिससे मैं यह मानने को विवश हो जून की माँ के आशीर्वाद
भी हो सकतें है झूठे

तूँ खुद ही सोचकर देखना
आज के पीढ़ी के लिए क्या संभव है
दूध से नहाना जहाँ नहीं मिल पाता
एक छोटी सी प्याली चाय के लिए भी दूध

याद आती है मुझे तेरे हाथों की वह मीठी मीठी खीर
किन्तु क्या कर सकता हूँ आज तो खीर सिर्फ उपमा देने की
वस्तु बनती जा रही है
जीवन होता जा रहा है टेढ़ी खीर
लेकिन फिर भी विश्वाश दिलाता हूँ तुझे
जिए जाऊंगा मैं तेरे आशीर्वाद की मर्यादा रखने

क्योंकि तेरी बातों पर मेरा अटल विश्वास डिग नहीं सकता कभी
क्योंकि तूँ ही तो कहा करती थी न कि दुनिया जैसी भी है
परमात्मा की श्रेष्ठतम रचना है

बुधवार, 16 मार्च 2011

होली काश लौट आये बीते दिन

होली एक ऐसा त्यौहार जिसके आते ही मन आल्हादित हो जाता है सारा आलम मस्ती में डूब जाता है लगता है मानो चारों ही ओर मस्ती ही मस्ती है हर तरफ मानो बहार छाई हुई है पलाश के फूल आमंत्रण दे रहें है आम के बौर मानो संकेत दे रहें है बसंत के फागुन के आने का तभी तो कविवर लक्षमण मस्तुरिहा ने कहा भी है ** मन डोले रे माघ फगुनवा रश घोले रे माघ फगुनवा राजा बरोबर लगे मौरे आमा रानी संही परसा फुलवा **


निश्चित ही फागुन के महीने में पलाश पर लगे फूलों को देखकर मन उछलने लगता है पलाश की चर्चा चलने पर याद आया तब मैं सरकारी सेवा में था एवं मेरे पास मणिपुर से एक सज्जन किसी कार्यवश आये थे उन्होंने मुझसे कहा कि खंदेलिया जी मैंने आपने जीवन में पलाश के पेड़ों पर कभी इतनी बहार नहीं देखी है मैं चाहता हूँ कि इन्हें अपने कैमरे में कैद करके ले जाऊ यदि आप मेरे साथ उन पेड़ों तक चलें तो मैं उनकी तस्वीर उतरना चाहता हूँ किन्तु डरता हूँ कि कहीं कोई मुझे रोक न ले उनके निवेदन पर मैं उनके साथ चला गया और जब वे उन पेड़ों की तस्वीर उतर रहे थे तो आसपास एकत्रित हुए लोगों को हंसी आ रही थी खैर उन्होंने जी भर कर तस्वीरें खिंची और उसे साथ ले गए उन दिनों डिजिटल कैमरे का चलन नहीं था लिहाजा वे तस्वीर मुझे दिखा तो नहीं पाई किन्तु बाद में उन्होंने पत्र से मुझे सूचित किया कि उनकी तस्वीरों को देखकर उनके कला प्रेमी मित्र भाव विभोर हो गए एवं उनके चित्रों के लिए उन्हें कोई पुरस्कार भी दिया गया I
यह बात यूँ तो यंही खत्म हो जानी चाहिए थी किन्तु इस घटना का उल्लेख करने के पीछे मेरा उदेश्य यह कहना था की जिस पलाश को देखकर उन दिनों लोग भावविभोर हो जाया करते थे क्या अब भी होली के दिनों में वैसी स्थिति है इस घटना को याद करके मैं अनायास ही यादों के उन झरोखों में खो गया जहाँ बचपन के दिनों में हम लोग पलाश के फूलों को तोड़ कर लाते थे एवं घर में उन्हें उबालकर रंग बनाया जाता था उस रंग से होली खेलने का मजा ही कुछ और होता था आज भी वह याद जेहन को आनंद से सराबोर कर जाती है l
धीरे धीरे उन प्राकृतिक रंगों का स्थान रासायनिक रंगों ने ले लिया एवं होली का रंग विद्रूप होता गया लिहाजा लोगों ने होली खेलने की परंपरा को औपचारिक बना लिया जहाँ लोग घंटों एक दूसरे को रंग लगते हुए थकते नहीं थे वहीं अब वे होली खेलने से कतराने लगें है l
मुझे याद आता है मेरे छोटे से कस्बे में गणमान्य लोगों के नाम से होली कि टोलियाँ बनती थी एवं नगर भर में वे टोलियाँ आपने मुखिया के नाम लेलेकर होली खेला करती थी यथा होली है भाई होली है कुमार साहब की टोली है या फिर होली है भाई होली है लाटा जी की टोली है आदि ये टोलियाँ एक दूसरे को रंग में नहला नहला कर होई के त्यौहार का आनंद लिया करती थी l
होलिका दहन के लिए लोग कुछ तीन चार स्थानों पर इक्कठे होकर होली के पूजन के साथ होलिका दहन किया करते थे अपनी अपनी परम्पराओं को पूरा किया करते थे एवं दूसरे लोग उन्हें ऐसा करने में सहयोग दिया करते थे भक्त प्रह्लाद के जयकारों के बीच होलिका दहन संपन होता था l
शाम होते ही नगर में हंसी ठिठोली का ऐसा माहौल बन जाया करता था कि उसकी यादें कई दिनों तक जेहन में बनी रहती थी नगर के स्वनामधन्य लोगों को उपाधियों से नवाजा जाता थे इनमे कुछ उपाधियाँ तो मजाक में इतने चुभने वाली होती थी कि लोग उनके आधार पर अपने स्वयं के व्यौहार की मीमांसा तक करते थे किन्तु कोई भी इन उपाधियों का बुरा नहीं मानता था l
पता नहीं कंहा बिला गया वह समय ? कंहा खो गयी वे परम्पराएँ ? कंहा खो गए रिश्तों के वे ताने बने जिनके पीछे लोग जीवन लगा दिया करते थे ? क्या रिश्तों की वह मिठास कभी वापस आयेगी ? क्या होली ही नहीं और त्यौहारों की भी वे परम्पराएं लौट पाएंगी ? क्या कोई मेरे नगर के ही एक होनहार युवा स्वर्गीय नमीत केडिया जिसे काल ने असमय ही इस नगर से छीन लिया की ही तरह फिर कोई इस दिशा में सोचेगा ? विश्वास करना चाहिए कि ऐसा होगा l
कहा गया है न कि आशा से आकाश टिका है हमें भी आशा करनी चाहिए कि हमारे त्यौहारों की खोती परम्पराएँ जीवन की इस आपाधापी में फिर से लौटेंगी l हमारे त्यौहार जो भाईचारे और सौहार्द्र के प्रतीक है हम सभी फिर से उनका आनंद पुराने समय के अनुसार ही उठा पाएंगे
होली के अवसर पर इसी विश्वाश के साथ निवेदन
** आलम आपका मस्त कर जाये रंगीन छटा यह होली की
जीवन में सभी के खुशियों के रंग बरसाए रंगीन छटा ये होली की
होली के दिन चलो फिर से बिगड़ी हुई बातों को बनायें
रंगों और अबीर गुलाल के पर्व होली की हार्दिक शुभकामनायें

गुरुवार, 10 मार्च 2011

जीजिविषा बढे मतभेदों के साथ

मुझे आज अचानक ही याद आ गया बचपन में देखा हुआ एक भिखारी जो एक लकड़ी की टूटी हुई गाड़ी पर लगभग घिसटता हुआ चला करता था साथ में हाथ में एक पत्थर सरीखे कुछ टुकड़े जिनसे कुछ अच्छी सी आवाज निकलने की कोशिश लोगों के सामने हाँथ फैलता हुआ वह चलता जाता था रास्ते भर इस उम्मीद पर कि कोई तो होगा आज जो उसे आज के खाने के लिए कुछ दे देगा कई बार उसे खाने का सामान देते हुए मैंने सोचा था कि आखिर यह आदमी जिन्दा क्यां रहना चाहता है ? क्या है ऐसा जो उसे इस दशा में भी जीने के लिए मजबूर कर रहा है ? एक दिन अपनी बालसुलभ चपलता से पूछ ही लिया उसे कि आखिर तूँ मार क्यों नहीं जाता तब उसने मुझसे कहा था कि मार तो जाता पर क्या करूँ दुनिया से मोह नहीं छूटता तब मै सोचा करता था कि आखिर आदमी को ऐसा कौन सा मोह है जो इस दुनिया से बांधे रखता है ?
यदि आज मैं उस बात को याद करता हूँ तो मुझे अनायास ही हँसी आने लगती है कि क्या उस आदमी ने उस समय झूट कहा था निश्चित ही नहीं हम में से हर कोई तो किसी न किसी मोह से जकड़ा हुआ है हर कोई किसी न किसी चीज के नशे में हैं कहा भी तो है न किसी ने किसी को दौलत तो किसी को जवानी का नशा** फिर अनायास ही यह भी सोचने लगता हूँ कि आखिर इस नशे से हमें छुटकारा मिलेगा भी तो कैसे. मेरे एक प्रोफेसर की कही हुए बात याद आ जाती है कि मनुष्य की जीजिविषा अनंतर होती है उसे कोई भी नहीं रोक सकता आज जीवन के लगभग तीसरे पण में यह याद आ रहा है यह सोच रहा हूँ कि क्या मनुष्य कभी इस जीजिविषा से छुट सकेगा कभी नहीं क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो शायद हर कोई संन्याशी हो जायेगा .
शायद मेरी जीजिविषा वाली बात से कुछ लोग सहमत न भी हों किन्तु यह मेरी आपनी सोच है कि मनुष्य की जीजिविषा लगातार निरंतर बढ़ती ही रहनी चाहिये और वह भी मतभेदों के साथ क्योंकि मतभेद तो होंगे ही तभी तो शायद हम जिन्दा भी है याद नहीं आता कि किस ने कहा था कि यदि हममें मतभेद न हों तो फिर हमारे बीच बात करने का विचार विमर्श करने का मुद्दा भी क्या राह जायेगा तब हम सब क्या मुर्दों से ज्यादा बेहतर होंगे,

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

पुस्तकालयों की स्थापना

पुस्तकालयों की स्थापना
इस साल के सरकारी बजट को देख कर यह सुखद एहसास हुआ कि शासन द्वारा इस साल कुछ जगहों पर पुस्तकालयों की स्थापना के लिए राशी दी गयी है निश्चित ही यह संतोष जनक है क्योंकि जिन लोगों को पढने का शौक है वे ही जानते है कि पुस्तकों का क्या महत्व है ? मुझे मेरे एक शिक्षक याद है जो यह कहा करते थे कि रात को जब तक मैं कुछ पढ़ न लूँ तो मुझे नींद नहीं आती . तब मैं सोचा करता था कि आखिर पुस्तकों में ऐसा क्या है जो आदमी इस हद तक पुस्तकों का दीवाना हो जाता है. धीरे धीरे यह आदत मुझे भी लगी और मैं सौभाग्यशाली हूँ कि आज भी मेरी यह आदत बरक़रार है आज भी मन में एक इक्छा रहती है कि कहीं कुछ समय मिल जाये तो थोडा सा ही सही पढ़ लिया जाये (यह अलग बात है कि जीविका कि मजबूरी में अब इसके समय बहुत ही कम निकल पता हूँ ) .
अपने छोटे से नगर में लोगों ने कृपापूर्वक मुझे एक स्कूल चलाने की जिम्मेदारी दे रखी है सौभाग्य है कि मेरी स्कूल में एक अच्छा पुस्तकालय है जो स्कूल के प्रारम्भ में ही आज से ४५ वर्ष पूर्व स्थापित किया गया था इस पुस्तकालय में लगभग ५००० ऐसी पुस्तकों का संग्रह है जिनमे से अनेकों अब प्रिंट में नहीं है और यदि कुछ रीप्रिंट हुई भी है तो उनकी कीमत इतनी है कि उसे खरीद कर पढना एक सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं है .
समय समय पर जब मैं स्कूल जाता हूँ तो वंहा के पुस्तकालय में पदस्थ शिक्षक से जब बात होती है तब यह जानकर अति दुःख होता है कि पुस्तकालय से पुस्तकें निकल कर पढने वाले लोग अब बहुत ही कम रह गए हैं तब मुझे मेरा उसी स्कूल में बिताया समय याद आ जाता है जब एक ही पुस्तक को पढने के लिए अनेकों छात्र प्रतीक्षा किया करते थे .
शायद मै मूल विषय से भटक रहा हूँ प्रश्न तो फिर भी वही है कि यह अच्छी बात है कि सरकार द्वारा पुस्तकालयों की स्थापना के लिए राशि दी जा रही है किन्तु इन पुस्तकालयों में संग्रहीत की जाने वाली पुस्तकों को कितने लोग पढेंगे ? क्या कुछ ऐसा प्रयास भी किया जायेगा कि लोग पुस्तकों की तरफ आकर्षित हों और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो मुझे तो यही समझ में आता है कि ये पुस्तकलय भी तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों के ड्राइंग रूम की शोभा के तरह किसी स्थान विशेष की शोभा बनकर राह जायेंगे.और आने जाने वाले लोगों को अपनी शान बघारने के उद्देश्य से दिखाए जायेंगे यह बताया जायेगा कि हमारे पुस्तकालय में इतनी पुस्तकें हैं भले ही बताने वाले को उन पुस्तकों और उनके लेखकों के बारे में जानकारी नगण्य हो.
एक छोटी सी घटना का उल्लेख करना चाहता हूँ एक बड़े शहर में एक पुस्तक दुकान में गया और अटल जी की कविताओं का संग्रह मांग बैठा उस दुकानदार ने मुझे बड़े ही आश्चर्य से देखा और पूछा कि क्या अटल जी भी कविताएँ करते हैं जबकि उनका दावा था कि साहित्यिक पुस्तकों का उनकी दुकान से अच्छा संग्रह और कहीं नहीं मिल सकता क्या कहा जाये इसे ?
दुर्भाग्य जनक है कि आज पढने की प्रवृत्ति लगातार कम होते जा रही है पुस्तकालयों की स्थापना अवश्य ही अच्छी बात है किन्तु और भी अच्छा होगा यदि इनकी शुरुवात स्कूल के स्तर से की जाये यह प्रयाश कीया जावे कि छात्रों में पढने की कुछ तो आदत बने क्योंकि छात्र जीवन से पड़ने वाली पढने की आदत ही शायद स्थाई आदत बान सके और इन स्थापना के लिए प्रस्तावित पुस्तकालयों की उपादेयता सिद्ध हो सके अन्यथा तो वही होगे ड्राइंग रूम की शोभा वाली बात.
मेरे अपने मन की पीड़ा को आप के साथ बाँटने का मेरा यह प्रयास है

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

रिश्तों की खोती परंपरा
>> आज अनायास ही स्टेशन पर गाड़ी का इन्तेजार करते हुए सुने गए एक वाक्य ने पुरानी बातों को पुरानी यादों को कुरेद कर रख दीया. स्टेशन पर एक व्यक्ति अपने किसी रिश्तेदार को छोड़ने आया था उसे गाड़ी में चढ़ाकर वह लौट ही रहा था के किसी ने उसे पूछा कि किसे छोड़ने आया था उसने ठेट छत्तीसगढ़ी में कहा कि **मोर मितन्हा ददा आये रहिस तीन चार दिन ले ओला छोड़ेबार आये रहें ** यह सुनकर मुझे ऐसा लगा कि मानो मैं रिश्तों की उस दुनिया में पहुँच गया हूँ जिसे हमने वर्षों पहले पीछे छोड़ दिया था भुला दिया था जहाँ आपने मित्रों के रिश्तेदारों को भी उतना ही सम्मान दिया जाता है जितना अपने माता पिता या रिश्तेदारों को .
यह दुर्भाग्यजनक ही है कि अपने मित्रों के रिश्तेदारों को भी अपने रिश्तेदारों की ही तरह सम्मान देने की जो प्रथा थी वह लगभग विलुप्त ही होती जा रही है ऐसे में यदि कभी कभार ऐसे वाकये घाट जाएँ जो उन पुरानी स्थितियों की याद ताजा कर जाएँ तो लगता है मानों आशा का दीपक अभी बुझा नहीं है उसमें टिमटिमाती हुए लौ अभी बाकी है उसकी लालिमा अब भी जीवन में उत्साह का संचार कर रही है.
हमारे समाज में रिश्तों को सम्मान देने की जो प्रथा है वह वास्तव में अद्वितीय है इस पर मनन करते हुए अचानक ही किसी कार्यक्रम में कवि शैलेश लोढ़ा से सुनी पंक्तिया याद आती है जिसमें विदेश में बसे एक भारतीय ने कहा है कि :-
इस देश में और कुछ हो न हो रिश्तें जो भी वो सच्चे होते हैं
और सिर्फ यहीं घर घर में माँ बाप के पांव छूने वाले बच्चे होते हैं **
दुखद यह भी है की आज माँ बाप के पांव छूकर आशीर्वाद लेने का सौभाग्य जिन्हें प्राप्त है वे लोग भी हाय हेलो की संस्कृति में ढलकर इस सौभाग्य से वंचित हो रहें हैं हाय हलों की यह संस्कृति निश्चित ही हमारे संस्कारों की तो नहीं ही है .
राजस्थान में मेरे एक रिश्ते के भतीजे रहतें हैं जो उम्र में मुझसे कम से कम ३० वर्ष बड़े हैं किन्तु जब भी वे और मैं आमने सामने होतें है लपक कर वे मेरे पांव छूना नहीं भूलते और जब भी मैंने उनसे यह कहा कि वे उम्र को देखतें हुए ऐसा न करें तो वे हमेशा एक ही बात कहतें हैं कि उम्र अपनी जगह है किन्तु रिश्तों ने मुझे यह सौभाग्य दिया है कि मैं आपका आशीर्वाद पा सकूँ और कम से कम मेरा यह अधिकार तो मुझसे न छीनें और जब भी ऐसा होता है तो मेरी छाती फूल कर चौड़ी हो जाती है कि मेरे परिवार में आज भी कम से कम हमारी संस्कृति के अनुसार रिश्तों को सम्मान देने की प्रथा जीवित है पर अनायास ही एक प्रश्न मन को सालने भी लगता है कि आखिर कब तक हमारे ये संस्कार बच पाएंगे ? क्या मेरी आने वाली पीढ़ी इन संस्कारों को अपना पायेगी .
इन्ही सब बातों पर चर्चा के दौरान मेरे अग्रज श्री धीरेन्द्र कुमार सिंह की कही हुए एक बात मुझे बार बार याद हो आती है कि आज हम जिस रफ़्तार से पाश्चात्यता की ओर बढ़ रहें हैं उसमे सम्मान अब रिश्तों का या बुजुर्गियत का नहीं पदों का होने लगा है .निश्चित ही यह आज का नंगा सच है .
आब तो ऐसा लगने लगा है कि हम मितान, गियाँ,एवं महाप्रसाद जैसे रिश्तों को भूलते जा रहें है और इसका खामियाजा भी हम भोग ही रहें है पाश्चात्य का अन्धानुकरण करने वाले हम लोगों को शायद तात्कालिक रूप से यह अच्छा भी लगे किन्तु मन के किसी न किसी कोने में रिश्तों को भूलते जाने की पीड़ा टीस बनकर सालती तो है .
निश्चित ही ऐसे में कभी कभी रिश्तों की ऐसी व्याख्या सुनने को मिल जाती है तो लगता है कि संवेदनशीलता अभी पुरी तरह मारी नहीं है और शायद ठोकर खाकर ही सही हम फिर से रिश्तों का सम्मान करने की ओर बढ़ने लग जाएँ