बुधवार, 16 मार्च 2011

होली काश लौट आये बीते दिन

होली एक ऐसा त्यौहार जिसके आते ही मन आल्हादित हो जाता है सारा आलम मस्ती में डूब जाता है लगता है मानो चारों ही ओर मस्ती ही मस्ती है हर तरफ मानो बहार छाई हुई है पलाश के फूल आमंत्रण दे रहें है आम के बौर मानो संकेत दे रहें है बसंत के फागुन के आने का तभी तो कविवर लक्षमण मस्तुरिहा ने कहा भी है ** मन डोले रे माघ फगुनवा रश घोले रे माघ फगुनवा राजा बरोबर लगे मौरे आमा रानी संही परसा फुलवा **


निश्चित ही फागुन के महीने में पलाश पर लगे फूलों को देखकर मन उछलने लगता है पलाश की चर्चा चलने पर याद आया तब मैं सरकारी सेवा में था एवं मेरे पास मणिपुर से एक सज्जन किसी कार्यवश आये थे उन्होंने मुझसे कहा कि खंदेलिया जी मैंने आपने जीवन में पलाश के पेड़ों पर कभी इतनी बहार नहीं देखी है मैं चाहता हूँ कि इन्हें अपने कैमरे में कैद करके ले जाऊ यदि आप मेरे साथ उन पेड़ों तक चलें तो मैं उनकी तस्वीर उतरना चाहता हूँ किन्तु डरता हूँ कि कहीं कोई मुझे रोक न ले उनके निवेदन पर मैं उनके साथ चला गया और जब वे उन पेड़ों की तस्वीर उतर रहे थे तो आसपास एकत्रित हुए लोगों को हंसी आ रही थी खैर उन्होंने जी भर कर तस्वीरें खिंची और उसे साथ ले गए उन दिनों डिजिटल कैमरे का चलन नहीं था लिहाजा वे तस्वीर मुझे दिखा तो नहीं पाई किन्तु बाद में उन्होंने पत्र से मुझे सूचित किया कि उनकी तस्वीरों को देखकर उनके कला प्रेमी मित्र भाव विभोर हो गए एवं उनके चित्रों के लिए उन्हें कोई पुरस्कार भी दिया गया I
यह बात यूँ तो यंही खत्म हो जानी चाहिए थी किन्तु इस घटना का उल्लेख करने के पीछे मेरा उदेश्य यह कहना था की जिस पलाश को देखकर उन दिनों लोग भावविभोर हो जाया करते थे क्या अब भी होली के दिनों में वैसी स्थिति है इस घटना को याद करके मैं अनायास ही यादों के उन झरोखों में खो गया जहाँ बचपन के दिनों में हम लोग पलाश के फूलों को तोड़ कर लाते थे एवं घर में उन्हें उबालकर रंग बनाया जाता था उस रंग से होली खेलने का मजा ही कुछ और होता था आज भी वह याद जेहन को आनंद से सराबोर कर जाती है l
धीरे धीरे उन प्राकृतिक रंगों का स्थान रासायनिक रंगों ने ले लिया एवं होली का रंग विद्रूप होता गया लिहाजा लोगों ने होली खेलने की परंपरा को औपचारिक बना लिया जहाँ लोग घंटों एक दूसरे को रंग लगते हुए थकते नहीं थे वहीं अब वे होली खेलने से कतराने लगें है l
मुझे याद आता है मेरे छोटे से कस्बे में गणमान्य लोगों के नाम से होली कि टोलियाँ बनती थी एवं नगर भर में वे टोलियाँ आपने मुखिया के नाम लेलेकर होली खेला करती थी यथा होली है भाई होली है कुमार साहब की टोली है या फिर होली है भाई होली है लाटा जी की टोली है आदि ये टोलियाँ एक दूसरे को रंग में नहला नहला कर होई के त्यौहार का आनंद लिया करती थी l
होलिका दहन के लिए लोग कुछ तीन चार स्थानों पर इक्कठे होकर होली के पूजन के साथ होलिका दहन किया करते थे अपनी अपनी परम्पराओं को पूरा किया करते थे एवं दूसरे लोग उन्हें ऐसा करने में सहयोग दिया करते थे भक्त प्रह्लाद के जयकारों के बीच होलिका दहन संपन होता था l
शाम होते ही नगर में हंसी ठिठोली का ऐसा माहौल बन जाया करता था कि उसकी यादें कई दिनों तक जेहन में बनी रहती थी नगर के स्वनामधन्य लोगों को उपाधियों से नवाजा जाता थे इनमे कुछ उपाधियाँ तो मजाक में इतने चुभने वाली होती थी कि लोग उनके आधार पर अपने स्वयं के व्यौहार की मीमांसा तक करते थे किन्तु कोई भी इन उपाधियों का बुरा नहीं मानता था l
पता नहीं कंहा बिला गया वह समय ? कंहा खो गयी वे परम्पराएँ ? कंहा खो गए रिश्तों के वे ताने बने जिनके पीछे लोग जीवन लगा दिया करते थे ? क्या रिश्तों की वह मिठास कभी वापस आयेगी ? क्या होली ही नहीं और त्यौहारों की भी वे परम्पराएं लौट पाएंगी ? क्या कोई मेरे नगर के ही एक होनहार युवा स्वर्गीय नमीत केडिया जिसे काल ने असमय ही इस नगर से छीन लिया की ही तरह फिर कोई इस दिशा में सोचेगा ? विश्वास करना चाहिए कि ऐसा होगा l
कहा गया है न कि आशा से आकाश टिका है हमें भी आशा करनी चाहिए कि हमारे त्यौहारों की खोती परम्पराएँ जीवन की इस आपाधापी में फिर से लौटेंगी l हमारे त्यौहार जो भाईचारे और सौहार्द्र के प्रतीक है हम सभी फिर से उनका आनंद पुराने समय के अनुसार ही उठा पाएंगे
होली के अवसर पर इसी विश्वाश के साथ निवेदन
** आलम आपका मस्त कर जाये रंगीन छटा यह होली की
जीवन में सभी के खुशियों के रंग बरसाए रंगीन छटा ये होली की
होली के दिन चलो फिर से बिगड़ी हुई बातों को बनायें
रंगों और अबीर गुलाल के पर्व होली की हार्दिक शुभकामनायें

गुरुवार, 10 मार्च 2011

जीजिविषा बढे मतभेदों के साथ

मुझे आज अचानक ही याद आ गया बचपन में देखा हुआ एक भिखारी जो एक लकड़ी की टूटी हुई गाड़ी पर लगभग घिसटता हुआ चला करता था साथ में हाथ में एक पत्थर सरीखे कुछ टुकड़े जिनसे कुछ अच्छी सी आवाज निकलने की कोशिश लोगों के सामने हाँथ फैलता हुआ वह चलता जाता था रास्ते भर इस उम्मीद पर कि कोई तो होगा आज जो उसे आज के खाने के लिए कुछ दे देगा कई बार उसे खाने का सामान देते हुए मैंने सोचा था कि आखिर यह आदमी जिन्दा क्यां रहना चाहता है ? क्या है ऐसा जो उसे इस दशा में भी जीने के लिए मजबूर कर रहा है ? एक दिन अपनी बालसुलभ चपलता से पूछ ही लिया उसे कि आखिर तूँ मार क्यों नहीं जाता तब उसने मुझसे कहा था कि मार तो जाता पर क्या करूँ दुनिया से मोह नहीं छूटता तब मै सोचा करता था कि आखिर आदमी को ऐसा कौन सा मोह है जो इस दुनिया से बांधे रखता है ?
यदि आज मैं उस बात को याद करता हूँ तो मुझे अनायास ही हँसी आने लगती है कि क्या उस आदमी ने उस समय झूट कहा था निश्चित ही नहीं हम में से हर कोई तो किसी न किसी मोह से जकड़ा हुआ है हर कोई किसी न किसी चीज के नशे में हैं कहा भी तो है न किसी ने किसी को दौलत तो किसी को जवानी का नशा** फिर अनायास ही यह भी सोचने लगता हूँ कि आखिर इस नशे से हमें छुटकारा मिलेगा भी तो कैसे. मेरे एक प्रोफेसर की कही हुए बात याद आ जाती है कि मनुष्य की जीजिविषा अनंतर होती है उसे कोई भी नहीं रोक सकता आज जीवन के लगभग तीसरे पण में यह याद आ रहा है यह सोच रहा हूँ कि क्या मनुष्य कभी इस जीजिविषा से छुट सकेगा कभी नहीं क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो शायद हर कोई संन्याशी हो जायेगा .
शायद मेरी जीजिविषा वाली बात से कुछ लोग सहमत न भी हों किन्तु यह मेरी आपनी सोच है कि मनुष्य की जीजिविषा लगातार निरंतर बढ़ती ही रहनी चाहिये और वह भी मतभेदों के साथ क्योंकि मतभेद तो होंगे ही तभी तो शायद हम जिन्दा भी है याद नहीं आता कि किस ने कहा था कि यदि हममें मतभेद न हों तो फिर हमारे बीच बात करने का विचार विमर्श करने का मुद्दा भी क्या राह जायेगा तब हम सब क्या मुर्दों से ज्यादा बेहतर होंगे,

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

पुस्तकालयों की स्थापना

पुस्तकालयों की स्थापना
इस साल के सरकारी बजट को देख कर यह सुखद एहसास हुआ कि शासन द्वारा इस साल कुछ जगहों पर पुस्तकालयों की स्थापना के लिए राशी दी गयी है निश्चित ही यह संतोष जनक है क्योंकि जिन लोगों को पढने का शौक है वे ही जानते है कि पुस्तकों का क्या महत्व है ? मुझे मेरे एक शिक्षक याद है जो यह कहा करते थे कि रात को जब तक मैं कुछ पढ़ न लूँ तो मुझे नींद नहीं आती . तब मैं सोचा करता था कि आखिर पुस्तकों में ऐसा क्या है जो आदमी इस हद तक पुस्तकों का दीवाना हो जाता है. धीरे धीरे यह आदत मुझे भी लगी और मैं सौभाग्यशाली हूँ कि आज भी मेरी यह आदत बरक़रार है आज भी मन में एक इक्छा रहती है कि कहीं कुछ समय मिल जाये तो थोडा सा ही सही पढ़ लिया जाये (यह अलग बात है कि जीविका कि मजबूरी में अब इसके समय बहुत ही कम निकल पता हूँ ) .
अपने छोटे से नगर में लोगों ने कृपापूर्वक मुझे एक स्कूल चलाने की जिम्मेदारी दे रखी है सौभाग्य है कि मेरी स्कूल में एक अच्छा पुस्तकालय है जो स्कूल के प्रारम्भ में ही आज से ४५ वर्ष पूर्व स्थापित किया गया था इस पुस्तकालय में लगभग ५००० ऐसी पुस्तकों का संग्रह है जिनमे से अनेकों अब प्रिंट में नहीं है और यदि कुछ रीप्रिंट हुई भी है तो उनकी कीमत इतनी है कि उसे खरीद कर पढना एक सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं है .
समय समय पर जब मैं स्कूल जाता हूँ तो वंहा के पुस्तकालय में पदस्थ शिक्षक से जब बात होती है तब यह जानकर अति दुःख होता है कि पुस्तकालय से पुस्तकें निकल कर पढने वाले लोग अब बहुत ही कम रह गए हैं तब मुझे मेरा उसी स्कूल में बिताया समय याद आ जाता है जब एक ही पुस्तक को पढने के लिए अनेकों छात्र प्रतीक्षा किया करते थे .
शायद मै मूल विषय से भटक रहा हूँ प्रश्न तो फिर भी वही है कि यह अच्छी बात है कि सरकार द्वारा पुस्तकालयों की स्थापना के लिए राशि दी जा रही है किन्तु इन पुस्तकालयों में संग्रहीत की जाने वाली पुस्तकों को कितने लोग पढेंगे ? क्या कुछ ऐसा प्रयास भी किया जायेगा कि लोग पुस्तकों की तरफ आकर्षित हों और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो मुझे तो यही समझ में आता है कि ये पुस्तकलय भी तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों के ड्राइंग रूम की शोभा के तरह किसी स्थान विशेष की शोभा बनकर राह जायेंगे.और आने जाने वाले लोगों को अपनी शान बघारने के उद्देश्य से दिखाए जायेंगे यह बताया जायेगा कि हमारे पुस्तकालय में इतनी पुस्तकें हैं भले ही बताने वाले को उन पुस्तकों और उनके लेखकों के बारे में जानकारी नगण्य हो.
एक छोटी सी घटना का उल्लेख करना चाहता हूँ एक बड़े शहर में एक पुस्तक दुकान में गया और अटल जी की कविताओं का संग्रह मांग बैठा उस दुकानदार ने मुझे बड़े ही आश्चर्य से देखा और पूछा कि क्या अटल जी भी कविताएँ करते हैं जबकि उनका दावा था कि साहित्यिक पुस्तकों का उनकी दुकान से अच्छा संग्रह और कहीं नहीं मिल सकता क्या कहा जाये इसे ?
दुर्भाग्य जनक है कि आज पढने की प्रवृत्ति लगातार कम होते जा रही है पुस्तकालयों की स्थापना अवश्य ही अच्छी बात है किन्तु और भी अच्छा होगा यदि इनकी शुरुवात स्कूल के स्तर से की जाये यह प्रयाश कीया जावे कि छात्रों में पढने की कुछ तो आदत बने क्योंकि छात्र जीवन से पड़ने वाली पढने की आदत ही शायद स्थाई आदत बान सके और इन स्थापना के लिए प्रस्तावित पुस्तकालयों की उपादेयता सिद्ध हो सके अन्यथा तो वही होगे ड्राइंग रूम की शोभा वाली बात.
मेरे अपने मन की पीड़ा को आप के साथ बाँटने का मेरा यह प्रयास है