मंगलवार, 11 जनवरी 2011

रिश्तों की खोती परंपरा
>> आज अनायास ही स्टेशन पर गाड़ी का इन्तेजार करते हुए सुने गए एक वाक्य ने पुरानी बातों को पुरानी यादों को कुरेद कर रख दीया. स्टेशन पर एक व्यक्ति अपने किसी रिश्तेदार को छोड़ने आया था उसे गाड़ी में चढ़ाकर वह लौट ही रहा था के किसी ने उसे पूछा कि किसे छोड़ने आया था उसने ठेट छत्तीसगढ़ी में कहा कि **मोर मितन्हा ददा आये रहिस तीन चार दिन ले ओला छोड़ेबार आये रहें ** यह सुनकर मुझे ऐसा लगा कि मानो मैं रिश्तों की उस दुनिया में पहुँच गया हूँ जिसे हमने वर्षों पहले पीछे छोड़ दिया था भुला दिया था जहाँ आपने मित्रों के रिश्तेदारों को भी उतना ही सम्मान दिया जाता है जितना अपने माता पिता या रिश्तेदारों को .
यह दुर्भाग्यजनक ही है कि अपने मित्रों के रिश्तेदारों को भी अपने रिश्तेदारों की ही तरह सम्मान देने की जो प्रथा थी वह लगभग विलुप्त ही होती जा रही है ऐसे में यदि कभी कभार ऐसे वाकये घाट जाएँ जो उन पुरानी स्थितियों की याद ताजा कर जाएँ तो लगता है मानों आशा का दीपक अभी बुझा नहीं है उसमें टिमटिमाती हुए लौ अभी बाकी है उसकी लालिमा अब भी जीवन में उत्साह का संचार कर रही है.
हमारे समाज में रिश्तों को सम्मान देने की जो प्रथा है वह वास्तव में अद्वितीय है इस पर मनन करते हुए अचानक ही किसी कार्यक्रम में कवि शैलेश लोढ़ा से सुनी पंक्तिया याद आती है जिसमें विदेश में बसे एक भारतीय ने कहा है कि :-
इस देश में और कुछ हो न हो रिश्तें जो भी वो सच्चे होते हैं
और सिर्फ यहीं घर घर में माँ बाप के पांव छूने वाले बच्चे होते हैं **
दुखद यह भी है की आज माँ बाप के पांव छूकर आशीर्वाद लेने का सौभाग्य जिन्हें प्राप्त है वे लोग भी हाय हेलो की संस्कृति में ढलकर इस सौभाग्य से वंचित हो रहें हैं हाय हलों की यह संस्कृति निश्चित ही हमारे संस्कारों की तो नहीं ही है .
राजस्थान में मेरे एक रिश्ते के भतीजे रहतें हैं जो उम्र में मुझसे कम से कम ३० वर्ष बड़े हैं किन्तु जब भी वे और मैं आमने सामने होतें है लपक कर वे मेरे पांव छूना नहीं भूलते और जब भी मैंने उनसे यह कहा कि वे उम्र को देखतें हुए ऐसा न करें तो वे हमेशा एक ही बात कहतें हैं कि उम्र अपनी जगह है किन्तु रिश्तों ने मुझे यह सौभाग्य दिया है कि मैं आपका आशीर्वाद पा सकूँ और कम से कम मेरा यह अधिकार तो मुझसे न छीनें और जब भी ऐसा होता है तो मेरी छाती फूल कर चौड़ी हो जाती है कि मेरे परिवार में आज भी कम से कम हमारी संस्कृति के अनुसार रिश्तों को सम्मान देने की प्रथा जीवित है पर अनायास ही एक प्रश्न मन को सालने भी लगता है कि आखिर कब तक हमारे ये संस्कार बच पाएंगे ? क्या मेरी आने वाली पीढ़ी इन संस्कारों को अपना पायेगी .
इन्ही सब बातों पर चर्चा के दौरान मेरे अग्रज श्री धीरेन्द्र कुमार सिंह की कही हुए एक बात मुझे बार बार याद हो आती है कि आज हम जिस रफ़्तार से पाश्चात्यता की ओर बढ़ रहें हैं उसमे सम्मान अब रिश्तों का या बुजुर्गियत का नहीं पदों का होने लगा है .निश्चित ही यह आज का नंगा सच है .
आब तो ऐसा लगने लगा है कि हम मितान, गियाँ,एवं महाप्रसाद जैसे रिश्तों को भूलते जा रहें है और इसका खामियाजा भी हम भोग ही रहें है पाश्चात्य का अन्धानुकरण करने वाले हम लोगों को शायद तात्कालिक रूप से यह अच्छा भी लगे किन्तु मन के किसी न किसी कोने में रिश्तों को भूलते जाने की पीड़ा टीस बनकर सालती तो है .
निश्चित ही ऐसे में कभी कभी रिश्तों की ऐसी व्याख्या सुनने को मिल जाती है तो लगता है कि संवेदनशीलता अभी पुरी तरह मारी नहीं है और शायद ठोकर खाकर ही सही हम फिर से रिश्तों का सम्मान करने की ओर बढ़ने लग जाएँ