शनिवार, 10 सितंबर 2011

हे गणेश

इतना वरदान ही हमें देना हे विघ्नहर्ता
एक बार फिर गणेसोत्सव आया और अब जाने को है गणेसोत्सव के साथ मेरे मन में मेरे नगर की बहुत सी यादें जुडी है नगर में एक दो जगह ही गणेश स्थापना हुआ करती थी और पुरे दस दिन नगर में उत्सव का माहौल रहा करता था उस समय हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के हिसाब से इस हेतु चंदा दिया करता था कालांतर में कई जगहों पर गणेश स्थापना की जाने लगी और धीरे धीरे नगर में उत्सव का वह माहौल समाप्त हो गया गणेश स्थापना लगभग रश्म अदायगी होने लगी.
इस साल कल ही जब एक जगह मै गणेश पूजन के समय पहुँच गया तब पूजन के बाद एक बुजुर्ग ने चर्चा में एक ऐसा सवाल उठा दिया कि वहां उपस्थित हममें से कुछ लोग उस बात पर चिंतन के लिए मजबूर हो गए.
हुआ यूँ कि उन बुजुर्ग का कहना था कि वे अपने बेटे को घर लेजाने आए हैं जो यहाँ पूजा में लगा हुआ है एवं घर पर उसकी माता की तबियत ठीक नहीं है उसे हॉस्पिटल लेकर जाना है किन्तु वह जा नहीं रहा है उस बुजुर्ग ने कहा कि बेटा मेरा बेटा जिस गणेश की पूजा में मस्त है उशी विघ्नविनाशक गणेश ने अपने माता पिता की परिक्रमा को संसार की परिक्रमा मन कर पूरा किया था और प्रथम पूज्य हुए थे किन्तु उसकी पूजा में लगे मेरे बेटे को अपने माँ बाप का दर्द ही दिखाई नहीं देता काश कि वह भगवान गणेश से इतनी ही शिक्षा पा सकता.
इस बात ने कम से कम मुझे तो अन्दर तक झकझोर दिया और यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि विघ्नहर्ता गणेश अपने उस भक्त को काश इतनी बुद्धि देते कि वह उनकी एक शिक्षा को तो ग्रहण कर पता.
दुखद है कि आज हमारे समाज में बुजुर्गों को वह अपेक्षित सम्मान नहीं मिल पा रहा है जो उन्हें मिलना चाहिए.
आइये उस परम कृपानिधान मंगलकर्ता से इतनी ही प्रार्थना करें कि वह हमें यही वरदान दे कि हमारे समाज में बुजुर्गो से माता पिता से ऊँचा कोई न मन जाए
जय जय श्री गणेश