ये अट्टहास फिर
आज फिर जला रावण
हमेशा की ही तरह
फिर मनाया मैंने बुराई पर अच्छाई
की जीत का पर्व
पर कुछ ही पलों बाद फिर
जी उठा मेरे अन्दर का रावण
करता हुआ अट्टहास
बताता हुआ मुझे मेरी औकात
कि चाहे उसे कीतनी ही बार
मार लूँ मै
फिर जी उठेगा वह
बनकर कभी मेरा लोभ
तो कभी मेरे समाज का
भ्रष्टाचार
तो कभी और किसी रूप में
पर जिन्दा रहेगा मेरे अन्दर
क्योंकि शायद मै नहीं
मारना चाहता उसे कभी भी जड़ से