शनिवार, 8 दिसंबर 2012


न  जाने क्या पाने को जी चाहता है 
तेरी रहमत का है ये भी एक दौर मालिक 
कि सब कुछ भुलाने को जी चाहता है 
तूनें तो बख्सी दुनिया की सारी नियामतें मुझे 
पर तुझी से मुंह छुपाने को दिल चाहता है 
है कौन इस जहाँ में जिस मिला हो शकू 
ये जानते हुए भी शकुन पाने को जी चाहता है 
किस्मत की लिखी जिसे लोग कहतें हैं 
उसे अपनी हिम्मत से मिटने को जी चाहता है 
सब जानकर भी गुनाह पर गुनाह किये जा रहा हूँ 
अब तुझसे भी गुनाह छिपाने को जी चाहता है 
जनता हूँ नहीं तुझसे कुछ भी मांगने के काबिल मैं 
फिर भी मांगने की हिम्मत जुटाने को जी चाहता है 

सोमवार, 12 नवंबर 2012


चाहे टूट ही जाएँ सपने तो छोड़ते जाना 
फिर आ गए तुम नववर्ष 
नहीं भरा तुम्हारा मन अब भी 
देखकर दुर्दशा हमारी 
रिश्ते नाते सब स्वाहा हो गए 
इतनी भभक चुकी है 
स्वार्थ की अग्नि हमारी 
क्यों आ जाते हो तुम 
फिर परोसने नए सुहाने सपने 
जिन्हें फिर तोड़ जायेंगे 
रहनुमा ही मेरे अपने 
पर आ ही गए हो तो इतना सुनते जाना  
डर जाता था जब आहाट से मैं 
बीत गया वो जमाना 
अब अपने अधिकारों के लिए लड़ने की 
है हम सब ने ठानी 
भूल चुके है हम सब आदते पुरानी 
इसीलिए कर रहा हूँ स्वागत तुम्हारा 
बड़े मजे से आना 
चाहे टूट ही जाएँ फिर 
मेरी आखों में जीवन के सपने 
फिर एक बार छोड़ जाना 
























बुधवार, 24 अक्तूबर 2012


ये अट्टहास फिर 
आज फिर जला रावण 
हमेशा की ही तरह 
फिर मनाया मैंने बुराई पर अच्छाई 
की जीत का पर्व 
पर कुछ ही पलों बाद फिर 
जी उठा मेरे अन्दर का रावण 
करता हुआ अट्टहास 
बताता हुआ मुझे मेरी औकात 
कि चाहे उसे  कीतनी ही बार 
मार लूँ मै 
फिर जी उठेगा वह 
बनकर कभी मेरा लोभ 
तो कभी मेरे समाज का 
भ्रष्टाचार 
तो कभी और किसी रूप में 
पर जिन्दा रहेगा मेरे अन्दर 
क्योंकि शायद मै नहीं 
मारना चाहता उसे कभी भी जड़ से 

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

जीवन की आपाधापी में 
कंहा एक छण भी विश्राम मिला
मन के भावों को व्यक्त करने
कंहा कोई आयाम मिला 
जिधर भी गयी नजर 
हर तरफ ख्वाहिशें ही ख्वाहिशें 
कंहा भला प्यार भरा कोई पैगाम मिला
अब तो बात यही आती है समझ में 
स्वार्थ कि इस दुनिया में अपनों ने भी 
स्वार्थों को खूबसूरती से प्यार का है नाम दिया 
जीवन की आपाधापी में 
कंहा एक छण भी विश्राम मिला
मन के भावों को व्यक्त करने
कंहा कोई आयाम मिला 
जिधर भी गयी नजर 
हर तरफ ख्वाहिशें ही ख्वाहिशें 
कंहा भला प्यार भरा कोई पैगाम मिला
अब तो बात यही आती है समझ में 
स्वार्थ कि इस दुनिया में अपनों ने भी 
स्वार्थों को खूबसूरती से प्यार का है नाम दिया 

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

कुछ पंक्तिया
कहीं शायद पढ़ी हुई या सूनी हुई पंक्तिया
**ऐ माँ आज मैंने जाना
मेरे बचपन में मेरे अबोलेपन के बाद भी
क्यों जान समझ लेती थी तूँ
मेरी पीड़ा को क्योंकि
शायद पीड़ा का तो जन्म ही हुआ था
किसी माता की प्रशव वेदना के साथ**
आइये सोच कर तो देखें इन पंक्तियों पर और चिंतन करें अपने आप पर

सोमवार, 26 मार्च 2012


ये क्या माँगा तुने ऐ फरिस्ते

कल मेरे घर
आया एक नन्हा सा मेहमान
मानो हो कोई देवदूत
यह कहता मुझसे कि
ऐ मेरे बुजुर्ग आपसे
बस इतनी ही है विनती
कि हो सके तो मेरे लिए
इंतजाम करो
कुछ ताजी सी हवा का
कुछ अपनापन लिए हुए रिश्तों का
कुछ अच्छे से सच्चे से ( दिखनेवाला ही सही )
समाज का ,
सोचता हूँ मैं
कि ये क्या मांग लिया
मेरे कुल के नवजात ने,
इससे तो अच्छा होता
गर मांगी होती
मेरी सारी दौलत ,
मेरा सारा प्यार
या फिर मेरा पूरा संसार
मन मरकर ही सही दे तो पता उसे मैं
पर अब क्या कहूँ तुझसे
माफ़ करना नन्हे फरिस्ते
नहीं पूरी कर सकूँगा शायद
मैं तेरी ये छोटी (?) सी चाहत
हो सके तो कुछ और मांग
या फिर मुझे मुह छुपाने
का मौका तो दे दे ऐ मेरे अपने

रविवार, 4 मार्च 2012

ऐ पुष्प
ऐ लाल पुष्प देखता हूँ जब भी
तेरे खुबसूरत रंग
सोचता हूँ कहाँ गयी वो तेरी
खुशबु जो रची बसी थी मेरे
नथुनों में तेरे रंगों के साथ
मै बात कर रहा हूँ तब की
जब बना करता था तू
मेरा साथी अपने से
अपने खुबसूरत रंगों के साथ
जीवन हुआ करता था रंगीन
त्यौहारों के अवसर पर
तब तू और हम एक दूसरे के
बन जाते थे पूरक
पर आज तो लगता है
ऐसा मानो तेरे ये लाल लाल
फूल मानो दे रहें हो गवाही
इस बात की कि लहू का रंग
होता है लाल ही
फिर चाहे वो किसी का जीवन
बचाने के कम आये या फिर
कुछ सिरफिरों द्वारा
सड़कों पर बहाया जाये
सच कहता हूँ डर सा लगता
है देखकर लाल रंग ही
कि न जाने कब किसी
मेरे अपने का खून भी
मुझे दिख जाये किसी सड़क
पर इसी लाल रंग में

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

हे वसंत इतना तो सिखा जाओ
ये क्या देखा मैंने ऋतुराज वसंत
तुम्हारा स्वागत इस प्रकार ,
मानो आया हो कोई अनचाहा,
अपने द्वार ,
और अपने ही स्वागत के लिए
बुलाना पड़ा अपनों को ही
क्योंकि भूल गए थे सभी
अपने तुम्हारे आने की आह्ट
अपने जीवन की आपाधापी में
हो सके तो इस बार
इतना तो सिखा दो हमें
कि हमारे यहाँ होता है
अपनों का ही नहीं
परायों का भी सत्कार

बुधवार, 18 जनवरी 2012

काश कि हमारी सोच बदलती
एक छोटी सी घटना ने आज मेरे दिलोदिमाग को झकझोर दिया हुआ यूँ कि मुह्हल्ले में कुछ स्ट्रीट लाइट बंद थी एवं लोगों में नाराजगी थी कि स्थानीय प्रशासन याने नगर पालिका इस पर ध्यान नहीं दे रही है हर कोई इस बात पर नगरीय प्रशासन को कोष रहा था तभी एक व्यक्ती जिसे मोह्हल्ले के लोग बडबोला कहतें है ने एक ऐसा प्रश्न उछाला कि सभी की बोलती बंद हो गयी उस व्यक्ति का कहना था कि कल तक तो यह बल्ब ठीक था और रात को ही एक विघ्नसंतोषी लड़के ने इसे तोडा तब यहाँ उपस्थित एक सज्जन उसे ऐसा करते हुए देख रहे थे तब क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वे उसे ऐसा करने से रोकते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया फिर आज वे किस अधिकार से नगर पालिका को दोषी ठहरा रहें है क्यों वे नगर पालिका से उम्मीद करते हैं कि वह लोगों द्वारा किये जाने वाले नुकसान को भरती रहें और उन महाशय ने स्वयं तो पालिका के करों का भुगतान किया नहीं फिर उन्हें यह क्यों नहीं सोचना चाहिए कि आखिर पालिका के पास धन कहाँ से आयेगा .
इस घटना ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि हम सिर्फ अपने अधिकारों के ही बारें में क्यों सोचतें है इस बात पर विचार क्यों नहीं करते कि हमारे अधिकार तो हमारे हैं लेकिन हमारे कर्तव्य भी तो हैं जिन्हें निभाने में हम बिलकुल भी जागरूक नहीं है जब भी कभी हमारे कर्तव्यों की बात आती है हम मुंह छुपाने में छण भर भी देर नहीं लगाते यदि उस दिन उन महाशय ने अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया होता उस उदंड या नासमझ बालक को बल्ब फोड़ने से रोका होता तो न तो उन्हें परेशानी झेलनी पड़ती और ना ही पालिका पर नाराज होने या ऑफिस के चक्कर लगाने की जरुरत पड़ती किन्तु हम लोग तो शायद सिर्फ अधिकारों को ही समझने के आदि हो गए हैं यदि कोई हमारे कर्तव्यों के बारे में हमसे बात भी करता है तो हमें गुस्सा आता है कर्तव्यों की बातें हमें सिर्फ पुस्तकों तक ही अच्छी लगती है यदि कभी कोई हमें अपने कर्तव्य याद भी दिलाये तो हमें लगता है मानो वह हमें उपदेश दे रहा है और शायद ऐसा इस लिए भी है कि जो लोग हमें कर्तव्यों की याद दिलाते है वे स्वयं भी पर उपदेश कुशल बहुतेरे के ही सिद्धांतों पर चलते नजर आते हैं यदि हम चाहते हैं कि वास्तव में हमें सारी सुविधाएँ सारी सहूलियतें मिलाती रहें तो हमारा यह दायित्व निश्चित ही है कि हम दूसरों की भी तकलीफों को समझकर बात करें यहाँ एक उदहारण देना चाहता हूँ मेरे नगर अकलतरा में रेलवे का एक ओवर ब्रिज शहर के मध्य से गत ७ वर्षों से निर्माणाधीन है प्रारंभ में जब कुछ लोगो ने इस स्थान विशेष पर इसके निर्माण का विरोध किया तो अधिकांश लोगों ने इससे कोई सरोकार नहीं रखा बल्की यह तक कहा कि कुछ लोग नेतागिरी झाड़ रहें हैं आज उसमे से ही कुछ लोग इसी निर्माण के कारण अत्यंत तकलीफ में है तब उन्हें याद आ रहा है कि इस ब्रिज के लिए स्थान का चयन गलत था उनका कहना है कि उन्हें अंदाजा नहीं था कि निर्माण के दौर में उन्हें इतनी परेशानियाँ उठानी पड़ेंगी I
हममें से हर कोई आज सहूलियतों को भोगने का आदि हो गया है हम यह कतई नहीं सोचना चाहते कि जो सुविधाएँ हमें मिल रही हैं या जिन सुविधाओं की हम मांग करते हैं उन्हें पाने के लिए हमारे जो दायित्वा हैं उनका निर्वहन भी हमारी जिम्मेदारी है I
दुर्भाग्य ही है कि अधिकारों की बात करनेवाले हम लोग कर्तव्यों से मुंह छिपाते हैं और यदि कुछ लोग इस दिशा में प्रयास भी करें तो उनकी आलोचना करने में पीछे नहीं रहते उनके द्वारा की जाने वाली निस्वार्थ समाज सेवा पर भी नेतागिरी का मुल्लम्मा चढाने में बिलकुल नहीं हिचकते कहीं पढी हुई कुछ लाइन याद आ रही है कि
" काश किसी ने भिक्षा के रूप में ही दिया होता
काश मैं दीक्षा के रूप में ही लिया होता
अपने लिए तो जीता है हर कोई
काश पल दो पल ही सही मैं भी औरों के लिए जिया होता "
परमात्मा करे एक बार हम सोच को बदल कर तो देखने की हिम्मत जुटा पायें तब शायद हम इस लायक बने कि अपने अधिकारों की बात कर सकें अन्यथा तो हमाम में हम सभी नंगे ही हैं श्रद्धेय बालकवि बैरागी जी की कुछ पंक्तियाँ फिर याद हो आती है कि
"मैं समय पर कह रहा हूँ अब भला क्या शेष है
हम निरंतर बुझ रहें हैं इससे का क्लेश है
जो दिया बुझकर पड़ा हो वह भला किस कम का
यह समय बिलकुल नहीं है ज्योती के आराम का
हाय रे समय है अब भी आग को अपनी जगाओ
बाट मत देखो सुबह की एक दीपक जलाओ "

शनिवार, 14 जनवरी 2012

क्या सोचूं क्यों सोचूं
क्या क्या सोचूं क्या क्या याद करूँ
क्या क्या भूल जाऊ
छोटा सा जीवन वृत्त मेरा
कितनी बातों के लिए याद रखेगा
कोई इसे
और याद रखने के लिए है भी क्या उसमें
सिवाय इसके कि जीया है मैंने
एक निरर्थक जीवन
अपने ही लिए
एक क्षण के लिए भी तो नहीं हो सका
मैं समाज का देश का
सोच नहीं सका अपने कर्तव्यों के बारे में
सिवाय इसके कि खा लूँ सो जाऊ
उठ कर हर सुबह
फिर से जीवन के निरर्थक मायने को तलाशने
का करूँ असफल प्रयाश
हे प्रभु कुछ तो सदबुधि दे मुझे
कि मैं भी सोच सकूँ कुछ तो औरों के बारे में भी