सोमवार, 27 दिसंबर 2010

नया साल नयी संभावनाएं


नयी दिशाएं नयी संभावनाएं ---- सवारे सज़ाएँ
एक बार फिर से नया वर्ष आ गया हम सब ही इस बात की तैयारी में लगे हैं कि नए वर्ष का स्वागत करें होगा भी ऐसा ही धूम धाम से नए साल का आगमन होने जा रहा है फिर से जागेंगी नयी उम्मीदें फिर से देखे जायेंगे नए सपने इस विश्वास के साथ कि वे पूरे होंगे कोई मसीहा आयेगा जो हमारी उम्मीदों पर पानी फिर जाने से रोकने की कोशिश करेगा.और हमें विश्वास रखना ही होगा की ऐसा होगा ही जैसा कि कहा भी गया है कि **आशा से आकाश टीका है ** हमें अपनी आशाओं को जगाकर बनाकर तो रखना ही होगा अन्यथा हममें और पत्थर की मूरत में क्या अंतर रह जायेगा किसी महापुरुष ने कहा भी है की यदि हममें मतभेद नहीं होंगे तो हमारे मध्य चर्चा करने को बच ही क्या जायेगा. वैसे कभी कादम्बनी पत्रिका में पढ़ा एक वाक्य चिंतन का विषय हो सकता है कि कितना सुखद और निरापद है मूर्तियों की तरह पत्थरों में तराश कर जिया जाना ताकि यदि हम बिकें भी तो करोड़ों में भले ही जीते जी हमारी कीमत कौड़ियों में न आकी जा सके. सच ही तो है आम आदमी की कीमत पहचानी भी जा सकेगी यह विवाद का ही विषय है. नए साल के अवसर पर मुझे मेरे एक मित्र द्वारा भेजा गया बधाई कार्ड याद हो आया शायद यह मेरी बेवकूफी ही थी की मैंने उसे संभल कर नहीं रखा उसके शब्द निम्न थे
नया वर्ष
नई रौशनी
नई आशाएं
नई दिशाएं
नई संभावनाएँ
आइये हम सब मिलकर इन्हें
सवारें सज़ाएँ शुभ कामनाएं
सच ही तो है कि हर नया साल हमारे लिए प्रगति कि अशेष संभावनाएं लेकर आता है यह अलग बात है कि हममें से कुछ ही लोग उन संभावनाओं को पहचान पाते हैं शेष नहीं.शायद शेष हम अंधेरे में ही भटके रह जाते है अपनी अंदर की क्षमताओं को पहचान नहीं पाते. मुझे मेरे शिक्षक कवि श्री आर एस केसरी की पंक्तियाँ याद हो आती है कि
हर आदमी निगल गया है एक सूरज को
अपने सूरज को उगल दो उजाला हो जायेगा
और तब आदमी आदमी को पहचान जायेगा **
प्रश्न फिर भी यक्ष की ही तरह खड़ा है कि क्या हम यह प्रयास भी करेंगे कि हम अपने आप को पहचान सकें? शायद नहीं.
इस साल यदि हम अपने आप में कम से कम सकारात्मक सोच का ही विस्तार कर पायें तो ही मेरी नज़रों में यह एक उपलब्धि होगी (कम से कम मेरे लिए तो होगी ही क्योंकि समाज के कुछ नाम चीन लोगों की करतूतों को देखकर मेरी सोच लगातार ही नकारात्मक होती जा रही है ऐसा मुझे लगता है )
गुज़रे साल में क्या खोया क्या पाया का विश्लेषण हमारी उपलब्धि हो सकती है बशर्ते कि यह निष्पक्ष भाव से हो.और हममें आत्मविश्लेषण करने का साहस हो.
हर साल अनायास ही कुछ न कुछ ऐसा तो घाट ही जाता है जिसे न चाहने पर भी हम भुला नहीं सकते न चाहने पर भी अकेले बैठे बैठे हमें वे घटनाएँ याद हो आती है कविवर मैथलीशरण गुप्त की पक्तियां याद हो आती है कि
** कोई पास नहीं रहने पर भी जन मन मौन नहीं रहता
आप आप की कहता है वह आप आप की सुनता **
अकेले बैठे बैठे मन की भावनाओं ने कुछ पंक्तियों में आकर ले लिया सादर प्रस्तुत है
आ गया फिर नया साल
लेकर असीम संभावनाएं
कास कि जुड़कर हम अपने स्वर्णिम अतीत से
भविष्य के फिर से सपने सज़ाएँ
रखे खुद को दूर घपलों घोटालों से
( घपले आम आदमी तो कर नहीं सकता किन्तु कम से कम
नामचीन लोगों के गप्ले सुनने को तो न मिलें क्योंकि उनका होना
तो अब हमारी नियति सी बनती नजर आ रही है )
सच करें उन सपनों को जो आँखों में हैं सालों से
उम्मीद की किरण सदा जलती जगमगाती रहे
मन में सदा ही सभी के नव प्रकाश फैलाती रहे
जीवन सदा ही खुशियों से सभी का भरा रहे
न भूखा नंगा रहे कोई न कोई किसी के ज़ुल्म सहे
अवगुण न दिखे किसी के सद्गुणों की सभी में खान दिखे
किसी की भावनाएं न हो आहत सभी का बना स्वाभिमान रहे
कोशिश हो जीवन सिर्फ जीने के लिए न जीया जा ये
किसी से बैर भाव न हो सभी से मित्रता बढ़ाएं
अपनी क्षमता का करें विकास सभी
प्रगति की नयी रहें बनायें
आइये मिलकर फिर सभी
नया साल मनाएं
ईश्वर अल्लाह गुरु पीर पैगम्बर
जो भी नाम दे उसे
उस परम सत्ता का आशीष पायें
शुभकामनाएं ,शुभकामनाएं, शुभकामनायें
( एक निवेदन इस नादान को उपदेशक न समझें यह मात्र मेरे मन की भावनाएं है जिसे मैंने आप जैसे लोगों के साथ बाँटने का प्रयास किया है )

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

क्या चिठ्ठियाँ फिर आएँगी?


क्या चिठ्ठियाँ फिर आएँगी ?


फिल्म
नाम का एक गीत ^^ चिठ्ठी आई है वतन से ** सुनते सुनते अनायास ही मन कुछ पुरानी यादों में खो गया.अनायास ही याद हो आये वे दिन जब अपनों का सन्देश उनकी कुशल क्षेम जानने के लिए इन्तेजार रहता था उनकी चिठ्ठी आने का. रोज ही दोपहर लगभग ११/ १२ बजे इन्तेजार रहता था डाकिये के आने का और यह इन्तेजार और भी गहरा हो जाता था जब कोई समाचार विशेष पाने के लिए डाकिये का इन्तेजार होता था और वह गाड़ी जिसके माध्यम से डाक आया करती थी लेट हो जाती थी.क्योंकि तब डाक के आने का माध्यम मात्र रेलगाड़ियाँ एवं सरकारी बसें ही हुआ करती थी.तब लगभग हर बड़े व्यापारी के यहाँ एक आदमी कि ड्यूटी लगा करती थी कि वह इस बात का ध्यान रखे कि डाक लेकर आने वाली गाड़ी या बस आ गई या नहीं और यदि आ गई हो तो डाकखाने में जाकर देखे कि डाक कि छंटाई हो गई या नहीं इन लोगों कि यह ड्यूटी रहती थी कि डाक कि छंटाई होते ही उस व्यक्ति या फर्म कि डाक डाकिये से लेकर तत्काल सम्बंधित व्यक्ति तक पहुंचाए जिससे उन पत्रों पर तुरंत कार्यवाही हो सके. उन दिनों में डाकिये का कितना महत्व हुआ करता था इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि पढाई में छात्रों से डाकिये पर निबंध लिखवाए जाते थे या फिर परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाते थे कि हमारे जीवन में डाकिये का क्या महत्व है?
मुझे याद आता है उन दिनों डाक खाने विशेष कर छोटे डाक खानों के कस्बों जैसे मेरा अकलतरा में लोग पोस्ट कार्ड या फिर अंतर्देशी पत्र डाक खाने से खरीद कर घर लाकर रख लेते थे कि यदि डाक खाना बंद हो जाने के बाद पत्र लिखना पड़े तो पछतावा न हो अक्सर ही दोस्तों को या ऐसे रिश्तेदारों को जिनसे सुख दुःख कि बाटें की जा सकती थी रत को आराम से पत्र लिखे जाते थे.उन दिनों में पढाई में लगभग हर कक्षा में पत्र लिखने सम्बन्धी पाठ हुआ करते थे लगभग हर परीक्षा में प्रश्नों के माध्यम से यह जाना जाता था कि कौन छात्र पत्र लिखने में कितना एक्सपर्ट है? विभिन्न विभागों को आवेदन देने या शिकायत करने को पत्र लिखने कि परम्परा थी. हर जगह डाक के निकलने का नियत समय हुआ करता था. किसी दुकान या माकन कि पह्चान हुआ करती थी कि उसके घर या दुकान के सामने पोस्ट ऑफिस का लाल डिब्बा लगा हुआ है.उन दिनों लेट फी पेमेंट करके डाक निकल जाने के बाद भी डाक भिजवाने के नियम थे .उन दिनों दीपावली या फिर अन्य त्यौहारों पर बधाई पत्र ढेरों में लोगों के पास आते थे इन पत्रों को सही समय पर पहुँचाने के उद्देश्य से अलग व्यवस्थाएं कि जाती थी.
मुझे याद है मेरे एक शिक्षक श्री नागानंद मुक्तिकंठ कहा करते थे कि यदि सच में कुछ लिखना सीखना चाहते हो तो कम से कम रोज किसी न किसी के नाम पर एक पत्र अवश्य लिखो फिर उसे पोस्ट करो या न करो और यदि नहीं करते हो तो उसे बार बार पढो इससे तुम्हे अपनी गलतियों का पता लग जावेगा एवं लिखने का मन भी बना रहेगा इस युक्ति को मैंने कुछ समय तक अपनाया भी.
खैर समय बदला एवं चिठ्ठियों कि जगह तार ने बाद में टेलीप्रिंटर ने एवं कालांतर में फैक्स आदि ने ले ली और आज उसकी जगह सर्वसुलभ मोबाइल ने ले ली है.
इस वर्ष दीपावली पर बमुश्किल चार पांच बधाई पत्र ही आये होंगे शेष तो मात्र मोबाइल के माध्यम से फ़ोन या फिर एस ऍम एस ही आये तब मन में उन दिनों कि याद के साथ ही एक पीड़ा भी उभरी कि क्या हमारी आने वाली पीढ़ी के लोग हमारे बच्चे चिठ्ठियाँ लिख भी पाएंगे? यह विचारणीय विषय हो सकता है अभी तो हम उस पीढ़ी के लोग त्यौहारों पर आने वाले बधाई पत्रों को याद करके ही आल्हादित हो सकते हैं एवं यदि हमरे पास हो तो उन पुराने पत्रों को निहार कर पुरानी यादों में खो ही सकतें है इस विश्वाश के साथ कि शायद लिखने कि परंपरा बनी रहेगी

रविवार, 21 नवंबर 2010

माँ बाप सम कौन जहाँ में



माँ बाप सम कौन नियंता
गत दिनों दुर्भाग्य से नगर की एक बुजुर्ग महिला की अन्त्येस्ठी में जाना पड़ा मुक्तिधाम में बैठे हुए हम में से कुछ लोगों के बीच चर्चा होने लगी बुजुर्गों के अनुभवों पर तब अनायास ही मुझे नगर की ही एक महिला की स्मृति हो आयी जिनका स्वर्गवास लगभग सौ वर्ष की अवस्था में हुआ था जीवन के सांध्य समय में अक्सर ही वे हमारे घर आ जाया करती थी तब अपने पारिवारिक अनुभवों को अपने दुखों को हम लोगों के साथ बाँट लेती थी शायद उन्हें इससे कुछ शकुन मिला करता था एक दिन जब उन्होंने यह बताया की मैं बस अभी अभी भोजन बनाकर एवं खाकर आयी हूँ तो अनायास ही मैं पूछ बैठा की दादी बेटे बहुओं के रहते हुए भी इस उम्र में भोजन बनाने की जरुरत क्यों पड़ जाती है तब उन्होंने बड़े ही हास परिहास भरे मुड में कहा की ^^ अनेकों बेटे राम के कौड़ी के न काम के ** .होने को तो यह उनकी व्यक्तिगत पीड़ा हो सकती हैं किन्तु आज के परिपेक्ष्य में यदि हम परिवार में अप्रासंगिक होते जा रहे माँ बाप पर सोचे तो यह बात मर्मान्तक रूप से ह्रदय को बेध जाती है. यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से दिमाग में मचलने लगता है कि क्या बच्चों को जन्म देने वाले माँ बाप सचमुच ही इतने अप्रासंगिक हो जाते है कि वे बच्चों को बोझ लगने लगते हैं? सच में ही हमारी आज की जीवन पध्द्हती क्या हमे इतना स्वार्थी बना चुकी है कि हम अपने जन्म दाता माता पिता के लिए थोडा सा भी समय नहीं निकल पाते?शायद अधिकांश किस्सों में यह बात ठीक बैठती है.नेत्र रोग निदान शिविर के एक समारोह में एक वक्ता द्वारा कही गयी यह बात मुझे बार बार याद आती है कि इस दुनिया में हर चीज का पकना आदमी को पसंद आता है पककर हर चीज की मिठास बढ़ा जाती है सिर्फ मनुष्य का पकना ही किसी को भी मीठा नहीं लगता. ऐसे ही एक नेत्र शिविर में एक बुजुर्ग का इलाज किया गया था प्रभु कृपा से उनकी आँखें ठीक हो गयी थी और जब दूसरे वर्ष हमारी संस्था ने पुनः नेत्र शिविर लगाने की घोषणा की तब वह बुजुर्ग मेरे पास आया और उसने निवेदन किया की उसे इस शिविर में कोई भी काम दिया जावे वह उसे करने को तैयार है जब हम लोगों ने उससे चर्चा की तो उसका कहना था कि गत वर्ष जब उसका ऑपरेशन शिविर में किया गया था उसके पहले उसे कुछ दिखाई नहीं देता था अनेकों बार उसने अपने बच्चों से निवेदन किया था किन्तु किसी भी लड़के ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया इसलिए वह चाहता है कि उसकी सहभागिता से ही शायद बच्चों के द्वारा नकारे गए किसी बुजुर्ग को फिर से आँखें मिल जाये.
यह वाक्य इस बात पर मनन करने को मजबूर कर देता है कि पुरानी पीढ़ी की अपेक्षा हमारी आज की पीढ़ी में आखिर कर संवेदन शीलता कम क्यों होती जा रही है. एक बुजुर्ग ने अत्यंत ही मर्मान्तक ढंग से यह बात कही कि जब भी मैं अपने बच्चों कि उपेक्षा का दंश झेलता हूँ प्रभु से यही मांगता हूँ कि हे भगवान अब तो मुक्ति दे दे. और जब भी मेरे से छोटा कोई मुझसे आशीर्वाद चाहता है तो उसे यही आशीर्वाद देता हूँ कि उसे मेरी तरह की स्थितियों से न गुजरना पड़े बच्चों की उपेक्षा न बर्दास्त करनी पड़े.
इस विषय पर अपने मनोभावों को लिखते हुए मुझे अचानक ही कविवर ओम व्यास की पंक्तिया जो मैंने गूगल के माध्यम से ही सुनी याद हो आती हैं कि
^^ वे खुस नसीब होते हैं माँ बाप जिनके साथ होते हैं
क्योंकि माँ बाप के आशीषों के हाथ हजारों हाथ होते है
दुनियां में माँ बाप की कमी को कोई भी पात नहीं सकता
और ईश्वर भी इनके आशीषों को काट नहीं सकता **
यदि हम परमात्मा पर विश्वाश करते हैं तो हमें निश्चित ही यह मन लेना चाहिए कि यदि वह परम सत्ता चाहती तो मानव का सृजन बिना माँ बाप के भी कर सकती थी किन्तु शायद वह परमसत्ता हर किसी के साथ कुछ न कुछ समय बिताना चाहती है शायद इसीलिए वह माँ बाप के रूप में इस दुनिया में अवतरित हुई अब शायद यह हर व्यक्ति के अपने अपने कर्मों का फल है कि उसे माँ बाप रूपी परमसत्ता की सेवा करने का कितना अवसर मिलता है.दुनिया में वे लोग निश्चित ही खुशनसीब होते हैं जिन्हें यह सौभाग्य लम्बे समय तक मिलता है.
यह सब लिखते हुए मुझे किसी के द्वारा लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ याद हो आती है क्षमा चाहता हूँ कि याद नहीं कर पा रहा हूँ कि कंहा पढ़ी थी और किसकी लिखी हुई हैं
^^ माँ आज मैं जान सका हूँ कि
मेरे अबोलेपन के बाद भी क्यों समझ लेती थी तुम मेरी पीड़ा को
क्योंकि पीड़ा का तो जन्मा ही हुआ था शायद
किसी माता की प्रसव वेदना के साथ **
लेकिन दुर्भाग्य यह है की पाश्चात्य संस्कृति के भक्त हो रहे हम लोग माँ कि उपासना का अपना धर्म ही भूलते जा रहें है.
हाँ गत दिनों एक समाचार समाचार पत्रों के माध्यम से पढने को मिला जिसे सुनकर मन को यह तृप्ति हुई कि अँधेरा अभी बहुत गाढ़ा नहीं हुआ है आशा कि किरण अभी बाकी है और भगवान करे कि यह किरण मशाल बनकर हम लोगों को रह दिखाए हाँ तो सुना गया समाचार यह था कि एक डॉक्टर जो सदा ही व्यस्त रहता है ने अपनी कैंसर से पीड़ित माता को उसकी इच्छा पूरी करने के लिए लगभग अपने कन्धों पर लेकर चारोंधाम की यात्रा कराई.आज के युग के उस श्रवण कुमार को नमन.
कागज पर इतना कुछ उतर देने के पीछे मेरा उद्देश्य किसी भी रूप में कोई भासन या उपदेश देना नहीं है यह तो उद्वेलित मन था जो अपनी बातों को अपनों के साथ बाटें बिना नहीं रह सका.कविवर ओम व्यास की माँ बाप पर लिखी कविता जो उन्होंने सहारा परिवार द्वारा स्व हरिवंश राय बच्चन की स्मृति में आयोजित कविसम्मेलन में सुनायी थी को जब भी सुनता हूँ मन उस पर चिंतन करने को विवश हो जाता है की आखिर हमारी आज की जिंदगी में फ़ैल रहे पाश्चात्यवाद के बीच हमारे बुजुर्ग क्यां अप्रासंगिक होते जा रहें हैं.काश कि परमात्मा हम में से हर एक को इतनी बुध्धि दे कि हम माँ बाप के द्वारा हमारे लालन पालन के लिए किये गए त्याग को देख सकें.

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

दीपावली आखिर कहाँ खड़े है हम

दीपावली आखिर कहाँ खड़े है हम
वर्षो पूर्व फिल्म नजराना का स्व मुकेश कि सुना हुआ एक गाना अचानक ही दिवाली के अवसर पर याद आ गया जिसके बोल थे ^^ एक वो भी दिवाली थी, एक ये भी दिवाली है उजड़ा हुआ गुलशन है रोता हुआ माली है** . इस गीत को याद करने का मन सिर्फ इस लिए हुआ कि मेरे छोटे से कस्बे में अब दिवाली मनाने के मायने बदलते हुए नजर आते है जहाँ पहले दिवाली पूजन और नए वर्ष के स्वागत का त्यौहार हुआ करता था वहीँ अब इसके स्वरुप में आ रहा परिवर्तन यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या हम अपनी संस्कृति को भूल नहीं रहें है.?पहले दीपावली के दिन का इंतजार रहता था की हमें नए नए कपडे पहनने के लिए मिलेंगें फाटकों के साथ मस्ती करने का मौका मिलेगा पूजन का इन्तेजार रहता था कि कब पूजा समाप्त हों और हमें फटाके फोड़ने का अवसर मिले सामान्यतह दीपावली के दुसरे दिन या उसी दिन पूजन के बाद अपने से बड़ों का आशीर्वाद लेने को मन बेताब सा रहता था छोटे छोटे दीयों से होने वाली रोशनी मन को मोह लिया करती थी हम में से बहुत से लोग ऐसे रहे होंगें जिन्होंने अपने से बड़ों का आशीर्वाद बिना यह सोचे लिया होगा कि वह कौन है? आइये अब आज कि स्थितियों पर विचार करने कि जहमत उठायें गत वर्ष से पूर्व के वर्ष मेरे नगर में दीपावली के दिन लोगों ने होली के नज़ारे का दीदार किया बहुत ही तेज गति से मोटरसाइकिल चलते युवाओं का झुण्ड बिना इस बात कि परवाह किये कि उनकी तेज गति किसी को तकलीफ पहुंचा सकती है या फिर वे स्वयं भी किसी दुर्घटना का शिकार हों सकते हैं सडको पर विचरते देखे गए न सिर्फ विचरते वरन सभ्य समाज कि बच्चियों पर छीटाकशी करते हुए भी किन्तु सभी कुछ सहन करना शायद नियति थी क्योंकि शिकायत कि भी जाती तो आखिर किससे?
पहले हम फाटकों का इस्तेमाल किया करते थे अपनी ख़ुशी का इजहार करने के लिए कालांतर में कुछ ऐसे फटाके इजाद हों गए और बनने लगे जो न सिर्फ लोगों को डराने का माध्यम बन गए वरन उन्हें नुकसान पहुचने का भी साधन बने. शासकीय तौर पर तो इन पर प्रतिबन्ध लगा हुआ है किन्तु हम और आप हर साल दिवाली पर इनका बेख़ौफ़ उपयोग होते देखते रहतें हैं और शासन में बैठे हुए वे लोग जिन पर इनका प्रयोग रोकने कि जिम्मेदारी है वे भी आराम से इनका उपयोग होते देखते हुए अपनी ड्यूटी पूरी कर लेते हैं न्यायालयों के आदेश के बाद भी नियत समय के बाद भी इनका उपयोग पूरी तन्मयता से होता रहता है. मुझे मेरे नगर कि एक घटना याद आती है हुआ कुछ यूँ था कि किसी व्यक्ति ने कुछ मनचले लड़कों को अपने घर के सामने आतिशबाजी करने से रोकने का प्रयास किया चूँकि उस जगह कुछ महिलाएं त्यौहार का आनंद लेने एकत्रित थी किन्तु बजाय इसके कि वे लड़के महिलाओं का सम्मान करते हुए उस सज्जन की बात मानते उन्होंने उनके साथ मारपीट की एवं दुसरे दिन उनके घर के सामने इतने फटाके फोड़े की उनका जीना हराम हों गया.आखिर क्या यही वह दिवाली का स्वरुप रहा होगा जिसके लिए हमारे बुजुर्गों ने इस त्यौहार को मानना प्रारंभ किया होगा? निश्चित ही नहीं किन्तु इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि हम सब यह झेलने को मजबूर हैं. खैर यह सब तो शायद हमारी आज की जिंदगी की मज़बूरी है जिसका पूरी कायरता से दीदार करने को हम तैयार नजर आते हैं
क्या हमें उम्मीद करनी चाहिए कि परिस्थितियां बदलेंगी और सभी कुछ ठीक हों जायेगा.शायद ऐसी उम्मीद आशा से आकाश टिका है की तर्ज पर ही की जा सकती है हों सकता है मेरा यह कहना मित्रों को उचित न ही लगे किन्तु मेरा यही मानना है की बहुत ज्यादा उम्मीद करना बेकार ही कहा जा सकता है क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि हम निश्चित ही अपनी आने वाली पीढ़ी को वह संस्कार नहीं दे पा रहें है जो शायद हमें देना चाहिए.शायद यह हमारी भीरुता ही है कि हम सब कुछ जन समझ कर भी अपनी परम्पराओं की ओर से मुहं मोड़ रहे हैं सुधि जन इस बात पर काफी बहस कर सकते हैं किन्तु यक्ष प्रश्न फिर वही है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? और हम सुब फिर से उत्तर देने कि स्थिति में नहीं हैं .
खैर शायद ये सारी बातें कुछ लोगों को बोझिले लगे और वे मुझ पर स्वयं को बड़ा दार्शनिक समझने का इल्जाम भी लगायें किन्तु मेरा मनोभाव कतई ऐसा नहीं है ऐसा लगा कि अपनों से अपनी बातें कहनी चाहिए बस इसीलिए यह सब लिख डाला यदि किसी को बोझिल लगे तो क्षमा चाहूँगा . किन्तु एक बर हम फिर सोचें कि आखिर हम कहाँ खड़े हैं एवं कितने जागरूक है. ये बातें शायद कभी खत्म ही न हों इसीलिए इन्हें यहीं विराम.
हम सभी के लिए दीपावली मंगलमय जीवन का नया एक साल लेकर आये यही प्रभु से प्रार्थना है दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें इन शब्दों के साथ कि
^^दीपों की यह यह माला हम सबके जीवन से तम दूर भगाए **
** है प्रार्थना इतनी प्रभु कि यह दिवाली हमारे अन्दर स्वाभिमान का अलख जगाये**

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

हमारे अन्दर का रावण

हमारे अन्दर की बुराई का रावण
वषों से हम हर साल कागज से बने रावण के पुतले को जलातें हैं
पर अपने भीतर के रावण को रत्ती भर भी नहीं मार पातें हैं
आज दशहरे के दिन अचानक ही कभी सुनी हुई ये पंक्तिया याद हो आयी स्मरण नहीं होता कि कहाँ सुनी थी किन्तु लगता है कि ये पंक्तिया सदा ही ताजी रहेंगी ये तत्कालीन परिस्थितियों में जीतनी सही थी तात्कालिक परिस्थितियों में भी उतनी ही सही हैं कहने वाले ने कितनी सच्ची बात कितने साधारण एवं प्रभावशाली तरीके से कह डाली है .कितना सच है कि हम अपने भीतर के रावण को मारना तो दूर उसे दुत्कार भी नहीं पातें है .अनायास ही एक सज्जन का चेहरा आँखों में घूम जाता है जो यूँ तो रात दिन अपना समय पूजा पाठ में बिताते थे देखने वाले को लगता था कि कितना सज्जन आदमी है किन्तु मेरा दावा है कि यदि कभी किसी ने उसे अपने घर में अपनी पत्नी या बहुओं से बेटों से बात करते सुना होगा तो उसकी राय इसके ठीक विपरीत होती क्योंकि जब भी मैंने उन्हें बात करते हुए सुना तो हमेशा वे गली प्रधान भाषा में ही बात करते पाए गए .अब प्रश्न तो यह है कि उन पुजारी महोदय कि पूजा किस काम की साबित हुई? क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि उन महाशय के अन्दर का रावण हमेशा ही सर उठाये खड़ा रहता है ? हो सकता है इस प्रकार का वाकया हम में से बहुतों के साथ घटित हुआ हो पर हम उस पर ध्यान नहीं देते क्या बुराइयों से इस प्रकार मुख मोड़ लेना भी इस बात का परिचायक नहीं है कि हमारे भीतर का रावन किसी किसी रूप में जिन्दा है?एक छोटी सी लघु कथा मैंने कही पढ़ी थी याद नहीं आता कहाँ कि एक ट्रेन में बहुत ज्यादा भीड़ थी लोग उसमे सफ़र कर रहे थे गाड़ी के दरवाजों से लोग लटके हुए थे अनायास ही एक आदमी का हाँथ दरवाजे के पास लगे डंडे से छुट गया और वह रेल लाइन के किनारे लगे हाई वोल्टाजे खम्भे से टकरा गया जिससे उसका सर फट गया एवं खून का फव्वारा फुट पड़ा खून छिटककर कुछ लोगो के कपड़ो पर लग गया इस घटना में किसी माँ के लाल उस बेटे कि जान चली गयी लोग हादसे से हतप्रभ थे हर कोई अफ़सोस कर रहा था कि बेचारे कि जान चली गयी किन्तु उसी गाड़ी में बैठे हुए एक सज्जन को यह बड़ा ख़राब लगा और उन्होंने नाक भौं सिकोड़ते हुए कहा साले ने पुरे कपडे ख़राब कर दिए .क्या कहा जा सकता है क्या कहा जा सकता है इस मानसिकता को ? हमारे क्षेत्र में एक कहावत कही जाती है कि ^^ बोकरा के जिव चल दिस अउ खवैया ला लवना ^^ अर्थात बकरा तो बिचारा अपनी जन से चला गया और खाने वाले को मजा नहीं आया. इसे शायद दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि हमारी संवेदनाए सूखती जा रही है अब पडोसी या किसी परिचित के दुःख से दुखी होने कि हमारी आदत लगभग ख़त्म हो गयी है पहले यदि मोहल्ले में किसी के यहाँ बेटी कि शादी होती थी तो बिदाई के समय बेटी के माँ बाप के साथ ही मोहल्ले की यदि कोई महिला अपने घर के सामने खड़ी होकर उस दृश्य को देख लेती थी तो विवाह के घर में जाये बिना ही अपने घर में खड़े खड़े ही उस पडोसी महिला के भी आंसू निकल आते थे आज हमारी वह संवेदनाये कहाँ विलुप्त होती जा रही है? क्या यह हमारे भीतर के रावन के लगातार ताकतवर होते जाने का प्रमाण नहीं है?.मुझे नाना पाटकर कि फिल्म प्रतिघात का एक सीन याद जाता है जिसमे डिम्पल कपाडिया घर से निकल कर जाती रहती है तब कुछ मनचले लड़के उसे छेड़ते है किन्तु सब कुछ देखकर भी कोई प्रतिकार नहीं करता किन्तु नाना पाटकर को यह सहन नहीं होता और वह उन मनचले लड़कों से भीड़ जाते है . हम अपने आसपास इस प्रकार कि घटनाये रोज देख रहें हैं किन्तु क्या उसका प्रतिकार कर पा रहें हैं ? शायद नहीं गत दिनों मेरे सामने ही जब कुछ बदमास किस्म के लड़कों ने स्ट्रीट लाइट के बल्ब को फोड़ रहे थे तो मैंने उन्हें मना किया किन्तु मेरे बड़े भाई सामान मोहल्ले के एक सज्जन ने मुझे ऐसा करने से मना किया एवं कहा कि क्या फायदा इन लोगों के मुंह लगकर क्यों अपनी इज्जत गवाते हो ? इन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.यह घटना उदहारण है कि किस प्रकार हम अपने भीतर बैठे दर रूपी रावण से घबरा रहें हैं . ऐसे अनेको उदाहरंनो पर चर्चा की जा सकती है किन्तु वह सार्थक तभी होगी जब हम उस पर मनन करके उस पर कुछ अमल भी करें वरना इस विजयादशमी को भी हमारे भीतर का रावण उतनी ही तीव्रता से उतने ही साहस से अट्टहास कर हमारा उपहास उड़ाता ही रहेगा और हम फिर अगली विजयादशमी की प्रतीक्षा करते रहेंगे .
^^आप सभी को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाये इस विश्वाश के साथ की हमारे भीतर के रावण का नाश हो ^^

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

सोच का फर्क सोच कर देखें

गत दिनों एक मित्र से एक मेल मिला जिसमें एक बुजुर्ग के बारे में बहुत सी अच्छी बातें लिखी हुई थी साथ ही यह भी बताया गया था कि आज कि स्थिति में किस प्रकार बुजुर्गों कि अहमियत को लगातार नाकारा जा रहा है उस मित्र ने मुझसे यह भी निवेदन किया था कि यह मेल मैं और किसी को न भेजूं ताकि बुजुर्गो से सरोकार रखने वाले लोगों को निराशा न हो एवं कुछ परिस्थितियों में बुजुर्गियत कि देहलीज में पैर रख रहे लोग स्वयं को अपमानित न महसूस करें हालाकि मैं इस बात को जनता हूँ कि मेरे उस मित्र को उसके अपने बच्चों से वह सम्मान नहीं मिल पा रहा है जो उसे मिलना चाहिए मेरे उस मित्र ने पुरे जीवन अपने बच्चों को लायक बनाने में कोई कसार नहीं रखी एवं इसके लिए उसने सच्चाई से व्यापर करते हुए जीवन जिया एवं बुजुर्गियत कि दहलीज पर आते आते उसने अपना व्यापर इस लायक बना डाला कि पुत्रों को जमा जमाया व्यापर सौपा एवं यह उम्मीद की कि उसके बच्चे भी उसी कि तरह अपना व्यापर पूरी लगन एवं निष्ठा से करते हुए समाज में अपनी एक अलग जगह बनायेंगे किन्तु ऐसा हुआ नहीं जल्दी पैसा बनाने के फेर में बच्चों ने अनैतिकता की राह पकड़ कर आगे बढ़ने की ठानी एवं बढे भी किन्तु यह बात बुजुर्गवार को गंवारा नहीं हुई मन उन्हें अन्दर से कचोटता था लेकिन वे कर कुछ भी नहीं पा रहे थे वे मात्र अपने आप में घुट कर रह जा रहे थे, परिणाम बहुत ही स्पष्ट था उनका शेष जीवन यही सोच सोच कर बीतता रहा की क्या उन्होंने सही किया या आज जो बच्चे कर रहे हैं वह सही है ? मेरी नजरों में यह आज की पीढ़ी एवं पुरानी पीढ़ी की सोच का अंतर है आज की पीढ़ी में जहा कुछ हद तक अर्थ प्रधानता का सिधांत मुख्य होता जा रहा है वंही पुरानी पीढ़ी सिधान्तो एवं सुचिता पर अधिक ध्यान देती नजर आती है और यही कारण है कि विचारों में मतभेद मनों में भेद कि शक्ल लेता जा रहा है ? क्या हम में से कोई भी इस पर पूरा ध्यान दे रहा है एवं हम अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से निर्वहन कर रहें हैं आइये इस पर विचार तो प्रारंभ करें.शायद हमारी सोच पर भी लगी हुई धुंध कुछ हद तक हटे.

रविवार, 4 जुलाई 2010

मनुष्य का यदि अपने आप पर वश चलता तो निश्चित ही बहुत से लोग शायद जीवन में एक बार फिर से बच्चा बनना चाहते कितना सुखद और निरापद है आदमी का बिना किसी चिंता के जिन्दा रहना , आज की इस आप धापी की जिंदगी में यदि कोई कहे की उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं है तो निश्चित ही वह झूठ बोल रहा है मुझे याद आती है मेरे एक डॉक्टर मित्र की वे मुझे सदा ही यह समझाया करते थे की चिंता से हमेशा दूर रहो लेकिन जब भी मेरा स्वास्थ्य बिगड़ता था तो बोला करते थे कि यार मैं यही सोचकर परेशां हूँ कि आखिर तेरा स्वास्थ्य कमजोर क्यों रहता है मुझे तुम्हारी चिंता रहती है और रात को मैं सो नहीं पता हूँ , अब इसे क्या कहा जाना चाहिए ? निश्चित ही हम सब किशी न किसी प्रकार कि चिंता में हैं शायद यह आज कि आपाधापी भरी जिंदगी का अभिशाप ही है कि हम चैन से शायद खाना भी नहीं खा पाते , हम में से हर कोई छटपटा रहा है कि किसी प्रकार इस स्थिति से बाहर आकर दो पल ही सही चैन कि साँस ले हर कोई इस बात के लिए फिक्र मंद है कि किसी प्रकार जीवन के कुछ ही छन उसे ऐसे मिले कि उसे लगे कि उसने जीवन को जी लिया है लेकिन दुर्भाग्य कि ऐसा हो नहीं पा रहा है हम सभी अपनी अपनी मजबूरियों के साथ जी रहे हैं फिर चाहे हमारी विवशता आर्थिक हो ,सामाजिक हो , या फिर और किसी प्रकार की। कास की कोई मददगार आये और फिर से हम सभी को बच्चा बना दे जनाब मुन्नवर राणा का एक शेर याद आ जाता है की " जी करता है की मैं फरिस्ता हो जाऊ , माँ से इस कदर लिपट जाऊं की बच्चा हो जाऊं "