रविवार, 21 नवंबर 2010

माँ बाप सम कौन जहाँ में



माँ बाप सम कौन नियंता
गत दिनों दुर्भाग्य से नगर की एक बुजुर्ग महिला की अन्त्येस्ठी में जाना पड़ा मुक्तिधाम में बैठे हुए हम में से कुछ लोगों के बीच चर्चा होने लगी बुजुर्गों के अनुभवों पर तब अनायास ही मुझे नगर की ही एक महिला की स्मृति हो आयी जिनका स्वर्गवास लगभग सौ वर्ष की अवस्था में हुआ था जीवन के सांध्य समय में अक्सर ही वे हमारे घर आ जाया करती थी तब अपने पारिवारिक अनुभवों को अपने दुखों को हम लोगों के साथ बाँट लेती थी शायद उन्हें इससे कुछ शकुन मिला करता था एक दिन जब उन्होंने यह बताया की मैं बस अभी अभी भोजन बनाकर एवं खाकर आयी हूँ तो अनायास ही मैं पूछ बैठा की दादी बेटे बहुओं के रहते हुए भी इस उम्र में भोजन बनाने की जरुरत क्यों पड़ जाती है तब उन्होंने बड़े ही हास परिहास भरे मुड में कहा की ^^ अनेकों बेटे राम के कौड़ी के न काम के ** .होने को तो यह उनकी व्यक्तिगत पीड़ा हो सकती हैं किन्तु आज के परिपेक्ष्य में यदि हम परिवार में अप्रासंगिक होते जा रहे माँ बाप पर सोचे तो यह बात मर्मान्तक रूप से ह्रदय को बेध जाती है. यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से दिमाग में मचलने लगता है कि क्या बच्चों को जन्म देने वाले माँ बाप सचमुच ही इतने अप्रासंगिक हो जाते है कि वे बच्चों को बोझ लगने लगते हैं? सच में ही हमारी आज की जीवन पध्द्हती क्या हमे इतना स्वार्थी बना चुकी है कि हम अपने जन्म दाता माता पिता के लिए थोडा सा भी समय नहीं निकल पाते?शायद अधिकांश किस्सों में यह बात ठीक बैठती है.नेत्र रोग निदान शिविर के एक समारोह में एक वक्ता द्वारा कही गयी यह बात मुझे बार बार याद आती है कि इस दुनिया में हर चीज का पकना आदमी को पसंद आता है पककर हर चीज की मिठास बढ़ा जाती है सिर्फ मनुष्य का पकना ही किसी को भी मीठा नहीं लगता. ऐसे ही एक नेत्र शिविर में एक बुजुर्ग का इलाज किया गया था प्रभु कृपा से उनकी आँखें ठीक हो गयी थी और जब दूसरे वर्ष हमारी संस्था ने पुनः नेत्र शिविर लगाने की घोषणा की तब वह बुजुर्ग मेरे पास आया और उसने निवेदन किया की उसे इस शिविर में कोई भी काम दिया जावे वह उसे करने को तैयार है जब हम लोगों ने उससे चर्चा की तो उसका कहना था कि गत वर्ष जब उसका ऑपरेशन शिविर में किया गया था उसके पहले उसे कुछ दिखाई नहीं देता था अनेकों बार उसने अपने बच्चों से निवेदन किया था किन्तु किसी भी लड़के ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया इसलिए वह चाहता है कि उसकी सहभागिता से ही शायद बच्चों के द्वारा नकारे गए किसी बुजुर्ग को फिर से आँखें मिल जाये.
यह वाक्य इस बात पर मनन करने को मजबूर कर देता है कि पुरानी पीढ़ी की अपेक्षा हमारी आज की पीढ़ी में आखिर कर संवेदन शीलता कम क्यों होती जा रही है. एक बुजुर्ग ने अत्यंत ही मर्मान्तक ढंग से यह बात कही कि जब भी मैं अपने बच्चों कि उपेक्षा का दंश झेलता हूँ प्रभु से यही मांगता हूँ कि हे भगवान अब तो मुक्ति दे दे. और जब भी मेरे से छोटा कोई मुझसे आशीर्वाद चाहता है तो उसे यही आशीर्वाद देता हूँ कि उसे मेरी तरह की स्थितियों से न गुजरना पड़े बच्चों की उपेक्षा न बर्दास्त करनी पड़े.
इस विषय पर अपने मनोभावों को लिखते हुए मुझे अचानक ही कविवर ओम व्यास की पंक्तिया जो मैंने गूगल के माध्यम से ही सुनी याद हो आती हैं कि
^^ वे खुस नसीब होते हैं माँ बाप जिनके साथ होते हैं
क्योंकि माँ बाप के आशीषों के हाथ हजारों हाथ होते है
दुनियां में माँ बाप की कमी को कोई भी पात नहीं सकता
और ईश्वर भी इनके आशीषों को काट नहीं सकता **
यदि हम परमात्मा पर विश्वाश करते हैं तो हमें निश्चित ही यह मन लेना चाहिए कि यदि वह परम सत्ता चाहती तो मानव का सृजन बिना माँ बाप के भी कर सकती थी किन्तु शायद वह परमसत्ता हर किसी के साथ कुछ न कुछ समय बिताना चाहती है शायद इसीलिए वह माँ बाप के रूप में इस दुनिया में अवतरित हुई अब शायद यह हर व्यक्ति के अपने अपने कर्मों का फल है कि उसे माँ बाप रूपी परमसत्ता की सेवा करने का कितना अवसर मिलता है.दुनिया में वे लोग निश्चित ही खुशनसीब होते हैं जिन्हें यह सौभाग्य लम्बे समय तक मिलता है.
यह सब लिखते हुए मुझे किसी के द्वारा लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ याद हो आती है क्षमा चाहता हूँ कि याद नहीं कर पा रहा हूँ कि कंहा पढ़ी थी और किसकी लिखी हुई हैं
^^ माँ आज मैं जान सका हूँ कि
मेरे अबोलेपन के बाद भी क्यों समझ लेती थी तुम मेरी पीड़ा को
क्योंकि पीड़ा का तो जन्मा ही हुआ था शायद
किसी माता की प्रसव वेदना के साथ **
लेकिन दुर्भाग्य यह है की पाश्चात्य संस्कृति के भक्त हो रहे हम लोग माँ कि उपासना का अपना धर्म ही भूलते जा रहें है.
हाँ गत दिनों एक समाचार समाचार पत्रों के माध्यम से पढने को मिला जिसे सुनकर मन को यह तृप्ति हुई कि अँधेरा अभी बहुत गाढ़ा नहीं हुआ है आशा कि किरण अभी बाकी है और भगवान करे कि यह किरण मशाल बनकर हम लोगों को रह दिखाए हाँ तो सुना गया समाचार यह था कि एक डॉक्टर जो सदा ही व्यस्त रहता है ने अपनी कैंसर से पीड़ित माता को उसकी इच्छा पूरी करने के लिए लगभग अपने कन्धों पर लेकर चारोंधाम की यात्रा कराई.आज के युग के उस श्रवण कुमार को नमन.
कागज पर इतना कुछ उतर देने के पीछे मेरा उद्देश्य किसी भी रूप में कोई भासन या उपदेश देना नहीं है यह तो उद्वेलित मन था जो अपनी बातों को अपनों के साथ बाटें बिना नहीं रह सका.कविवर ओम व्यास की माँ बाप पर लिखी कविता जो उन्होंने सहारा परिवार द्वारा स्व हरिवंश राय बच्चन की स्मृति में आयोजित कविसम्मेलन में सुनायी थी को जब भी सुनता हूँ मन उस पर चिंतन करने को विवश हो जाता है की आखिर हमारी आज की जिंदगी में फ़ैल रहे पाश्चात्यवाद के बीच हमारे बुजुर्ग क्यां अप्रासंगिक होते जा रहें हैं.काश कि परमात्मा हम में से हर एक को इतनी बुध्धि दे कि हम माँ बाप के द्वारा हमारे लालन पालन के लिए किये गए त्याग को देख सकें.

11 टिप्‍पणियां:

  1. मनुष्य का पकना भी मीठा होता है पर दुर्भाग्य है समाज का कि वह अनुभव किसी को पसन्द नहीं।

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  2. श्री श्याम कोरी से मेल पर मिली प्रतिक्रिया
    दो-चार दिन का सफ़र बचा है, यह सोच वह मुझे अस्पताल में पटक गया
    पंद्रह दिन बाद मुझे हस्ट-पुष्ट आता देख, वह दिल-पे हाथ रख शार्टकट से सटक गया

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  3. सार्थक पोस्ट है। शायद हम ही अपने बच्चों को संस्कार नही दे पाये कि आज बच्चों का ये हाल है और माता पिता की दुर्दशा। बहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट। धन्यवाद।

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  4. श्रीमती देवकी खंदेलिया से मेल पर प्राप्त प्रतिक्रिया
    आज राजस्थानापत्रिका पेपर में एक आर्टिकल पढ़ रही थी .चिंतन का विषय है किअन्न फल आदि कीतरह मानव भी हिब्रिडहो रहा है .हम आज प्राकृतिक रूप से भटक रहे हें .शिक्षा ने जीवन के साथ जो खिलवाड़ किया है उतना नुकसान तो आपके शत्रु भी आपसे नहीं कर सकते है .तीन वर्ष की आयु से बीस वर्ष की आयु तक मां;बाप की कमाईदांव पर लगा कर केवल अपना पेट भरना सीख रहा है ............जब व्यक्ति जीवन के प्रश्नों के प्रश्नों के उत्तर स्वमं नहीं ढूढ़ पाताहै तो नक़ल करने लगता है .भीढ़ के साथ प्रवाह में बहने लगता है ....................आज विश्व सुखों से भरा पढ़ा है किन्तु शांति उजड़गयी है .नारी के पुरुष भाव के असंयत विकास से अशांत और सुखों के पीछे भागने वाली पीढ़ी पैदा हो रही है ........................एक ओर लोक संस्कृति लुटती जा रही है दूसरी ओर भोग संस्कृति ने मानवसमाज को भोग की वस्तुबना दिया है .यही अपराध भाव का कारकहै.................शांति चाहिए तो संतति पर कार्य करें .गर्भस्त शिशु को संस्कारवान बनाने के प्रयोगफिर शुरू करें ............

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  5. वर्त्तमान स्थितियों को चित्रित करता हुआ अच्छा पोस्ट

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  6. बुजुर्ग, अभिभावक ही नहीं अनायास मिलने वाले भी, का साया जिनके साथ नहीं होता, वे कैसे अभागे हैं, यह अक्‍सर आड़े वक्‍त ही समझ में आता है.

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  7. आज की पीढ़ी में आखिर कर संवेदन शीलता कम क्यों होती जा रही है??

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  8. हमारा कर्त्तव्य हमे याद रहेऔर भगवन सामर्थ्य दें निभाने की.

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  9. वर्त्तमान पर प्रहार करती, स्थितियों को चित्रित करता हुआ अच्छा पोस्ट

    हमारे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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