माँ नहीं बदनाम करना चाहता तुन्हारे
दूधों नहाओं पूतो फलों के आशीर्वाद को
शायद इसीलिए जिए जा रहा हूँ
वरना आदमी को मरते हुए आदमी को
नहीं देखना चाहता या यूँ कहूँ कि नहीं देख सकता
नहीं देखना चाहता किसी माँ के पूतों को कपूत बनते
जिससे मैं यह मानने को विवश हो जून की माँ के आशीर्वाद
भी हो सकतें है झूठे
तूँ खुद ही सोचकर देखना
आज के पीढ़ी के लिए क्या संभव है
दूध से नहाना जहाँ नहीं मिल पाता
एक छोटी सी प्याली चाय के लिए भी दूध
याद आती है मुझे तेरे हाथों की वह मीठी मीठी खीर
किन्तु क्या कर सकता हूँ आज तो खीर सिर्फ उपमा देने की
वस्तु बनती जा रही है
जीवन होता जा रहा है टेढ़ी खीर
लेकिन फिर भी विश्वाश दिलाता हूँ तुझे
जिए जाऊंगा मैं तेरे आशीर्वाद की मर्यादा रखने
क्योंकि तेरी बातों पर मेरा अटल विश्वास डिग नहीं सकता कभी
क्योंकि तूँ ही तो कहा करती थी न कि दुनिया जैसी भी है
परमात्मा की श्रेष्ठतम रचना है
उम्दा रचनायें...अब तो वाकई कितनी उपमाएँ ही रह गई हैं..
जवाब देंहटाएंरचनायें= रचना.
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण श्रद्धांजलि.
जवाब देंहटाएंmain chakit hoon apko is naye kalevar me pakar.yah rachana nahi dil ki awaj hai. ajay bansal champa
जवाब देंहटाएंयह विश्वास और दृढ़ होता जाता है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना .. माँ के दिखावे रास्ते नीति पथ सदा जीवन भर नैतिकता की ओर ले जाते हैं .. माँ को सदा नमन.. सुन्दर रचना
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