सोमवार, 18 जुलाई 2011

माँ नहीं बदनाम करना चाहता तुन्हारे
दूधों नहाओं पूतो फलों के आशीर्वाद को
शायद इसीलिए जिए जा रहा हूँ
वरना आदमी को मरते हुए आदमी को
नहीं देखना चाहता या यूँ कहूँ कि नहीं देख सकता
नहीं देखना चाहता किसी माँ के पूतों को कपूत बनते
जिससे मैं यह मानने को विवश हो जून की माँ के आशीर्वाद
भी हो सकतें है झूठे

तूँ खुद ही सोचकर देखना
आज के पीढ़ी के लिए क्या संभव है
दूध से नहाना जहाँ नहीं मिल पाता
एक छोटी सी प्याली चाय के लिए भी दूध

याद आती है मुझे तेरे हाथों की वह मीठी मीठी खीर
किन्तु क्या कर सकता हूँ आज तो खीर सिर्फ उपमा देने की
वस्तु बनती जा रही है
जीवन होता जा रहा है टेढ़ी खीर
लेकिन फिर भी विश्वाश दिलाता हूँ तुझे
जिए जाऊंगा मैं तेरे आशीर्वाद की मर्यादा रखने

क्योंकि तेरी बातों पर मेरा अटल विश्वास डिग नहीं सकता कभी
क्योंकि तूँ ही तो कहा करती थी न कि दुनिया जैसी भी है
परमात्मा की श्रेष्ठतम रचना है

6 टिप्‍पणियां:

  1. उम्दा रचनायें...अब तो वाकई कितनी उपमाएँ ही रह गई हैं..

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  2. main chakit hoon apko is naye kalevar me pakar.yah rachana nahi dil ki awaj hai. ajay bansal champa

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  3. यह विश्वास और दृढ़ होता जाता है।

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  4. बहुत सुन्दर रचना .. माँ के दिखावे रास्ते नीति पथ सदा जीवन भर नैतिकता की ओर ले जाते हैं .. माँ को सदा नमन.. सुन्दर रचना

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