बुधवार, 15 दिसंबर 2010

क्या चिठ्ठियाँ फिर आएँगी?


क्या चिठ्ठियाँ फिर आएँगी ?


फिल्म
नाम का एक गीत ^^ चिठ्ठी आई है वतन से ** सुनते सुनते अनायास ही मन कुछ पुरानी यादों में खो गया.अनायास ही याद हो आये वे दिन जब अपनों का सन्देश उनकी कुशल क्षेम जानने के लिए इन्तेजार रहता था उनकी चिठ्ठी आने का. रोज ही दोपहर लगभग ११/ १२ बजे इन्तेजार रहता था डाकिये के आने का और यह इन्तेजार और भी गहरा हो जाता था जब कोई समाचार विशेष पाने के लिए डाकिये का इन्तेजार होता था और वह गाड़ी जिसके माध्यम से डाक आया करती थी लेट हो जाती थी.क्योंकि तब डाक के आने का माध्यम मात्र रेलगाड़ियाँ एवं सरकारी बसें ही हुआ करती थी.तब लगभग हर बड़े व्यापारी के यहाँ एक आदमी कि ड्यूटी लगा करती थी कि वह इस बात का ध्यान रखे कि डाक लेकर आने वाली गाड़ी या बस आ गई या नहीं और यदि आ गई हो तो डाकखाने में जाकर देखे कि डाक कि छंटाई हो गई या नहीं इन लोगों कि यह ड्यूटी रहती थी कि डाक कि छंटाई होते ही उस व्यक्ति या फर्म कि डाक डाकिये से लेकर तत्काल सम्बंधित व्यक्ति तक पहुंचाए जिससे उन पत्रों पर तुरंत कार्यवाही हो सके. उन दिनों में डाकिये का कितना महत्व हुआ करता था इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि पढाई में छात्रों से डाकिये पर निबंध लिखवाए जाते थे या फिर परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाते थे कि हमारे जीवन में डाकिये का क्या महत्व है?
मुझे याद आता है उन दिनों डाक खाने विशेष कर छोटे डाक खानों के कस्बों जैसे मेरा अकलतरा में लोग पोस्ट कार्ड या फिर अंतर्देशी पत्र डाक खाने से खरीद कर घर लाकर रख लेते थे कि यदि डाक खाना बंद हो जाने के बाद पत्र लिखना पड़े तो पछतावा न हो अक्सर ही दोस्तों को या ऐसे रिश्तेदारों को जिनसे सुख दुःख कि बाटें की जा सकती थी रत को आराम से पत्र लिखे जाते थे.उन दिनों में पढाई में लगभग हर कक्षा में पत्र लिखने सम्बन्धी पाठ हुआ करते थे लगभग हर परीक्षा में प्रश्नों के माध्यम से यह जाना जाता था कि कौन छात्र पत्र लिखने में कितना एक्सपर्ट है? विभिन्न विभागों को आवेदन देने या शिकायत करने को पत्र लिखने कि परम्परा थी. हर जगह डाक के निकलने का नियत समय हुआ करता था. किसी दुकान या माकन कि पह्चान हुआ करती थी कि उसके घर या दुकान के सामने पोस्ट ऑफिस का लाल डिब्बा लगा हुआ है.उन दिनों लेट फी पेमेंट करके डाक निकल जाने के बाद भी डाक भिजवाने के नियम थे .उन दिनों दीपावली या फिर अन्य त्यौहारों पर बधाई पत्र ढेरों में लोगों के पास आते थे इन पत्रों को सही समय पर पहुँचाने के उद्देश्य से अलग व्यवस्थाएं कि जाती थी.
मुझे याद है मेरे एक शिक्षक श्री नागानंद मुक्तिकंठ कहा करते थे कि यदि सच में कुछ लिखना सीखना चाहते हो तो कम से कम रोज किसी न किसी के नाम पर एक पत्र अवश्य लिखो फिर उसे पोस्ट करो या न करो और यदि नहीं करते हो तो उसे बार बार पढो इससे तुम्हे अपनी गलतियों का पता लग जावेगा एवं लिखने का मन भी बना रहेगा इस युक्ति को मैंने कुछ समय तक अपनाया भी.
खैर समय बदला एवं चिठ्ठियों कि जगह तार ने बाद में टेलीप्रिंटर ने एवं कालांतर में फैक्स आदि ने ले ली और आज उसकी जगह सर्वसुलभ मोबाइल ने ले ली है.
इस वर्ष दीपावली पर बमुश्किल चार पांच बधाई पत्र ही आये होंगे शेष तो मात्र मोबाइल के माध्यम से फ़ोन या फिर एस ऍम एस ही आये तब मन में उन दिनों कि याद के साथ ही एक पीड़ा भी उभरी कि क्या हमारी आने वाली पीढ़ी के लोग हमारे बच्चे चिठ्ठियाँ लिख भी पाएंगे? यह विचारणीय विषय हो सकता है अभी तो हम उस पीढ़ी के लोग त्यौहारों पर आने वाले बधाई पत्रों को याद करके ही आल्हादित हो सकते हैं एवं यदि हमरे पास हो तो उन पुराने पत्रों को निहार कर पुरानी यादों में खो ही सकतें है इस विश्वाश के साथ कि शायद लिखने कि परंपरा बनी रहेगी

7 टिप्‍पणियां:

  1. याद नहीं कि पिछली चिठ्ठी कब और किसे लिखी थी।

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  2. अब तो सिर्फ सरकारी चिठिया आती है
    मुझे भी याद नहीं की हम ने आखरी खत किसे लिखा था

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  3. पत्र और डायरी लिखना वास्‍तव में लेखन अभ्‍यास का अभिन्‍न हिस्‍सा था, लेकिन अब ब्‍लॉग है ना.

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  4. लेखन कार्य तो बिलकुल ही छूट गया था , लेकिन ब्लॉग के माध्यम से फिर भी लेखन से जुड़ाव है अन्यथा ईमेल जैसी सुविधा के बाद अब पत्र वगैरह लिखना तो नहीं हो पाता।

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  5. बिल्कुल ठीक कहा है..आज हम लिखने की आदत से दूर होते जा रहे है...पर ब्लॉग लेखन जरूर प्रोत्साहित कर रहा है लेकिन वह भी टाइपिंग के जरिए...कभी लिखना पड़ जाता है तो पैन भी ठीक से पकड़ा नही जाता...सुंदर आलेख...

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  6. बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति.........मगर उम्मीद तो नहीं लगती की ख़त का जमाना फिर लौट पाए......
    सृजन शिखर पर -- इंतजार

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  7. सच! पत्र बीते दिनों की बात हो चले हैं...

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